राजस्थान की हस्तकला: नमस्कार दोस्तों इस पोस्ट में आप राजस्थान की हस्तकला (Rajasthan ki Hastkala) से संबंधित संपूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे।
राजस्थान की हस्तकला / Rajasthan ki Hastkala
हाथों द्वारा कलात्मक वस्तुओं के निर्माण को हस्तकला कहा जाता है। राजस्थान की अनेक कलात्मक वस्तुएँ विश्वभर में लोकप्रिय है और बहुत ही चाह से खरीदी जाती है। राजस्थान प्राचीनकाल से हस्तशिल्प के क्षेत्र में विश्वविख्यात रहा है।
हस्तकला/हस्तशिल्प का अभिप्राय
- हस्तकलाओं से अभिप्राय हाथ से बनाई जाने वाली कलात्म्क वस्तुओं एवं कलाकृतियों से है जो हस्तशिल्पियों अथवा कारीगरों द्वारा तैयार की जाती हैं।
- इसके अन्तर्गत हम सोने-चांदी के कलात्मक आभूपणों, पीतल पर खुदाई एवं मीनाकारी के बर्तन, लाख से बनी चूड़ियां एवं अन्य सजावटी सामान, संगमरमर की सुन्दर एवं कलात्मक मूर्तियां, सांगानेरी एवं बगरु प्रिंट के कलात्मक परिधान, हाथी दांत तथा लकड़ी पर खुदाई के कलात्मक सामान, सलमा-सितारों की जूतियां आदि सब प्रकार का कलात्मक सामान आता है।
राजस्थान सर्वाधिक विदेशी मुद्रा हस्तकला उद्योग से प्राप्त करता है। तथा हस्तकला उद्योग में भी सर्वाधिक विदेशी मुद्रा हीरे-जवाहरात उद्योग से प्राप्त करता है।
1992 की औद्योगिक नीति में हस्तकला उद्योग को संरक्षण देकर उन्हें लघु उद्योग का दर्जा दिया गया।
1998 की औद्योगिक नीति में हस्तकला उद्योग में क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने का निर्णय लिया गया।
राजस्थान में प्रमुख हस्तकलाएँ
मीनाकारी तथा मूल्यवान रत्नों को तराशना
- मीनाकारी का कार्य राजस्थान में सर्वाधिक जयपुर में किया जाता है।
- जयपुर मूल्यवान रत्नों को तराशने तथा सोने चॉंदी के आभूषणों पर कलात्मक मीनाकारी के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट पहचान रखता है।
- जयपुर मे मीनाकारी की कला महाराजा मानसिंह प्रथम (1589-1614 ई.) द्वारा लाहौर से लाइ गई थी।
- परम्परागत रूप से सोने पर मौनाकारी के लिए काले, नीले, गहरे, पीले, नारंगी और गुलाबी रंग का प्रयोग किया जाता है। लाल रंग बनाने मे जयपुर के मीनाकार कुशल है।
- जयपुर में रत्नों की कटाई, घिसाई एवं मिनाकारी के कार्य को प्रोत्साहित करने हेतु जयपुर जेम्स स्टोन की स्थापना की गई।
- इसके अतिरिक्त नाथद्वारा, बीकानेर और प्रतापगढ़ में भी मीनाकारी का काम दक्षता के साथ किया जाता है।
- कोटा के रेतवाली क्षेत्र मे कांच पर विभिन्न रंगों से मीनाकरी का काम किया जाता है।
कागज जैसे पतले पतरे पर मीनाकारी :- बीकानेर
चाँदी पर मीनाकारी :- नाथद्वारा (राजसमन्द)
पीतल पर मीनाकारी :- जयपुर
ताँबे पर मीनाकारी :- भीलवाड़ा
सोने पर मीनाकारी :- प्रतापगढ़
NOTE: मीनाकारी का जादूगर:- कुदरतसिंह (जयपुर)। सन् 1988 ई. में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित। |
थेवा-कला
- काँच पर सोने की मीनाकारी को थेवा कला कहा जाता है।
- इसके लिए रंगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है।
- अलग-अलग रंगों के काँच पर सोने की चित्रकारी इस कला का आकर्षण है।
- इस कला मे नारी श्रृंगार के आभूषण एवं अन्य उपयोगी वस्तुएँ बनायी जाती है।
- थेवा कला के कारीगर पन्नीगर कहलाते है। तथा इस कार्य को पन्नीगरी कहते है।
- यह कला प्रतापगढ़ के राज सोनी परिवार में केवल पुरूषों में प्रचलित है।
- थेवा कला विश्व मे केवल प्रतापगढ़ जिले तक ही सीमित है। इस कला को जानने वाले शिल्पी “राज सोनी परिवार” राजस्थान के प्रतापगढ़ में ही रहते हैं।
- इस हस्तशिल्प कला को, ‘ज्योग्राफ़िकल आइडेंटिफ़िकेशन टैग’ (GI Tag) मिल भी मिल चुका है।
NOTE: इस कला का आविष्कार लगभग 16वीं सदी में प्रतापगढ़ रियासत के ‘राजा सावंतसिंह’ के समय में हुआ। नाथूजी सोनी को थेवा कला का जनक माना जाता है। |
धातु तथा पत्थर पर मीनाकारी
- पीतल पर मीनाकारी के लिए जयपुर एवं अलवर प्रसिद्ध है। अलवर में पीतल पर मीनाकारी का कार्य सर्वाधिक होता है।
- मुरादाबादी का काम – पीतल के बर्तनों पर खुदाई करके उस पर कलात्मक नक्काशी का कार्य ‘मुरादाबादी’ का काम कहलाता है। जयपुर में यह कार्य बहुतायत से होता है। अलवर में भी यह कार्य प्रचलित है।
- बादला – मरुस्थल मे पानी को ठण्डा रखने के लिए जस्ते से निर्मित बर्तन पर कपड़े या चमड़े की परत चढाई जाती है। इस कलात्मक बर्तन को बादला कहते है। जोधपुर में निर्मित खूबसूरत रंगों तथा डिजाइनों में बने बादले काफी प्रसिद्ध है।
- कागज जैसे पतले पत्थर पर मीनाकारी के लिए बीकानेर के मीनाकार विश्व प्रसिद्ध है। पुराने मीना की कारीगरी अधिक मूल्यवान समझी जाती है। बीकानेर के कलाकारों को उस्ताद कहा जाता है।
- तबक :- चाँदी के तारों को हिरण की खाल की कई परतों में रखकर कई घण्टों तक पीटा जाता है। इसके फलस्वरूप बनने वाले पते तबक/वर्क कहलाता है।
मूल्यवान रत्नों की कटाई और जड़ाई
- पन्ने की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय मंडी जयपुर में स्थित है।
- जयपुर कीमती और अर्द्ध-कीमती पत्थरों की कटाई और जड़ाई के लिए प्रसिद्ध है।
- नगो की कटाई व जड़ाई पर मुगल और राजपूत शैली का प्रभाव है। अधिकतर जड़ाई का काम मुस्लिम जाति के कारीगरो के हाथ में है। इनका कौशल प्रशंसनीय है।
- कुन्दन कला -स्वर्णाभूषणों में कीमती पत्थर जड़ने की कला कुन्दन कहलाती है। यह कला जयपुर में अधिक प्रचलित है।
- तारकशी – नाथद्वारा में चाँदी के बारीक तारों से विभिन्न आभूषण एवं कलात्मक वस्तुएँ बनाई जाती हैं। यह कला तारकशी तथा इन जेवरों कों तारकशी के जेवर कहते हैं।
उस्ताकला
- बीकानेर में ऊँट की खाल पर स्वर्ण मीनाकारी और मुनव्वत का कार्य ‘ऊस्तां कला’ कहलाता है। मुनव्वती कला का उद्गम ईरान में हुआ।
- इसमें ऊँट की खाल से बनी कुप्पियों पर दुर्लभ स्वर्ण मीनाकारी का कलात्मक कार्य किया जाता है जो अत्यंत आकर्षक एवं मनमोहक होता हैं।
- 1986 में पदमश्री से सम्मानित बीकानेर के स्वर्गीय हिसामुद्धीन उस्ता इस कला के प्रमुख कलाकार थे। हिसामुद्धीन को 1967 में राष्ट्रीय पुरस्कार से भी विभूषित किया गया था।
- बीकानेर का ‘कैमल हाइड ट्रेनिंग सेंटर’ ऊस्तां कला का प्रशिक्षण संस्थान है। अगस्त 1975 में सेंटर’ की स्थापना बीकानेर में की गई।
- यह कला शीशियों, कुप्पियों, आइनों, डिब्बों, मिट्टी की सुराहियों पर भी उकेरी जाती है।
राजस्थान में उस्ता कला के कलाकारों को सर्वप्रथम आश्रय बीकानेर के राजा रायसिंह ने दिया। राजस्थान में सर्वप्रथम प्रसिद्धि दिलाने वाला व्यक्ति ‘कादरबख्श’ था।
तहनिशां
- अलवर के तलवार साज लोग तथा उदयपुर के सिकलीगर लोग इस कला से जुड़े हुए हैं।
- तहनिशां के काम में डिजाइन को गहरा खोद कर उस खुदाई में पतला तार भर दिया जाता है।
कोफ्तगिरी
फौलाद अथवा लोहे पर सोने की सूक्ष्म कसीदाकारी कोफ्त गिरी कहलाती है। यह हथियारों को अलंकृत करने की कला है, जो भारत में मुगलों के प्रभाव के कारण उभरी थी। यह कला मूल रूप से दमिश्क की है।
कोफ्त गिरी शिल्प का इस्तेमाल ढ़ाल , तलवारों व खंजर और अन्य उपयोगी सामग्री जैसे डिब्बे, बक्से, भोजन काटने और खाने के कटलरी सामान, शिकार चाकू, छुरी इत्यादि के निर्माण में किया जाता है।
- इसके कलाकार को कोफ़्तगर कहा जाता है
- कोफ्तगिरी जयपुर एवं अलवर में बहुतायत से होती है।
- इसमें जडाव (इनले) और ओवरले दोनों प्रकार की कला का कार्य होता है।
- तलवार – सिरोही, अलवर, अदयपुर
मिट्टी से सम्बंधित हस्तकलाएं
पॉटरी: मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को पॉटरी कहते है। यह राजस्थान का सर्वाधिक प्राचीन और परम्परागत हस्तशिल्प है। पॉटरी को 800° C तक ताप में पकाया जाता है।
ब्ल्यू पॉटरी
जयपुर में ब्ल्यू पॉटरी निर्माण की शुरूआत का श्रेय महाराजा रामसिंह को है। उन्होने चूडामन और कालू कुम्हार को पॉटरी का काम सीखने दिल्ली भेजा और प्रशिक्षित होने पर उन्होने जयपुर मे इस हुनर की शरूआत की। ब्ल्यू पॉटरी के निर्माण के लिए पहले क्वार्ट्स एवं चीनी मिट्टी के बर्तनों पर चित्रकारी की जाती है, फिर इन पर एक विशेष घोल चढ़ाया जाता है।
यह घोल हरा काँच, कथीर. साजी. क्वार्टज पाउडर और मुल्तानी मिट्टी से मिलाकर बनाया जाता है। ब्ल्यू पॉटरी के रंगों में नीला, हरा, मटियाला और ताम्बाई रंग विशेष रूप से काम मे लेते है।
- ब्ल्यू पॉटरी कला का जन्म ईरान/पर्शिया में हुआ था।
- राजस्थान में ‘ब्ल्यू पॉटरी’ के लिये जयपुर सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
- जयपुर में ब्ल्यू पौटरी प्रारम्भ करने का श्रेय मानसिंह (प्रथम) को है, जबकि सवाई रामसिंह के समय इस कला का विकास हुआ।
- स्व. नाथी बाई ब्ल्यू पॉटरी की सिद्ध हस्तकला महिला थी।
- कागजी पॉटरी: अलवर की डबल कट वर्क की पॉटरी को कागजी कहा जाता है।
- ब्लेक पॉटरी: कोटा सुनहरी ब्लेक पॉटरी फूलदानों, मटकों और प्लेटों के लिए प्रसिद्ध है।
- बीकानेर की पॉटरी में लाख के रंगों का प्रयोग होता है।
NOTE: जयपुर के कृपाल सिंह शेखावत इसके सिद्धहस्त कलाकार थे। कृपालसिंह शेखावत का जन्म मऊ (सीकर) में हुआ था। कला में उनके योगदान हेतु 1974 में उन्हें पद्म श्री तथा 1980 में कलाविद सम्मान से सम्मानित किया गया था। |
टेराकोटा /मृण-शिल्प
- टेराकोटा /मृण-शिल्प: पक्की मिट्टी का उपयोग करके मूर्तियाँ, बर्तन, खिलौने आदि बनाने की कला को टेराकोटा के नाम से जाना जाता है।
- मोलेला गांव: नाथद्वारा के पास स्थित मोलेला गांव इस कला का प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। मोलेला गाँव के कुम्हार मूर्तियाँ बनाने के लिए ‘सोलानाड़ा तालाब’ की काली चिकनी मिट्टी काम में लेते हैं।
- हरजी गांव: जालौर के हरजी गांव के कुम्हार मामाजी के घोड़े बनाते है।
- मोलेला तथा हरजी दोनों ही स्थानों मे कुम्हार मिट्टी में गधे की लीद मिलाकर मूर्तियाँ बनाते है व उन्हें ताप पर पकाते है। गधे की लीद मिलाने से कलाकृति में दरारे नहीं पड़ती है।
- बू-नरावता गाँव: मिट्टी के खिलौने, गुलदस्ते, गमले तथा पशु-पक्षियों की कलाकृतियों के काम के लिए नागौर जिले का बनूरावतां गावं प्रसिद्ध है।
- कागजी टेराकोटा – अलवर में मिट्टी की बिल्कुल बारीक व परतदार कलात्मक वस्तुएं बनाई जाती हैं। इसे ‘कागजी टेराकोटा’ कहते हैं।
- सुनहरी टेराकोटा :- बीकानेर।
- मेहटोली (भरतपुर) :- मृत्तिका शिल्प के लिए प्रसिद्ध गाँव।
चूड़ियां एवं कलात्मक सामान
हाथी दांत की वस्तुएँ
- हाथी दांत के खिलौने, मूर्तिया एवं अनेक कलात्मक वस्तुएं राज्य में जयुपर, उदयपुर, भरतपुर, मेड़ाता और पाली में बनाई जाती है।
- राजस्थानी महिलाओं में सौभाग्य की प्रतीक हाथी दांत की चूड़ियां व अन्य सामान जोधपुर में बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त उदयपुर व पाली में भी हाथी दांत की चुड़ियां बनती है।
- राजस्थान के राजपूत समाज में विवाह के अवसर पर हाथी दांत का चूड़ा पहनने की प्रथा है।
- जयपुर स्थित आमेर महल के सुगाह मंदिर में चंदन के किवाड़ों पर हाथी दांत की पच्चीकारी का काम 17 वीं शताब्दी का माना जाता है।
लाख का काम/लाख के खिलौने
- लाख के काम से अभिप्राय चपड़ी को पिघला कर उसमें चाक मिट्टी बिरोजा हल्दी मिलाकर उसे गुंथ लिया जाना और फिर उससे विभिन्न चीजें तैयार करना है।
- जयपुर एवं जोधपुर में लाख एवं काँच से विविध कलात्मक सामान जैसे खिलौने, मूर्तियाँ, गुलदस्ते, हार, अंगूठियां, कर्णफूल, झुमके तथा चाबियों के गुच्छे आदि का निर्माण किया जाता है।
- जयपुर के महाराजा रामसिंह के समय लाख कला को भरपूर संरक्षण मिला।
- मांगलिक अवसरों पर राजस्थान की महिलाओं द्वारा लाख का चूड़ा पहना जाता है।
- लाख की चूड़ियों का काम मुख्य रूप से जयपुर, करौली, हिंडोन में होता है ।
- मोकड़ी: लाख से बनी चूड़िया मोकड़ी कहलाती है।
- राजस्थान में लाख पर हस्तशिल्प का कार्य जयपुर, उदयपुर, जोधपुर, अजमेर एवं भरतपुर में विशेष रूप से होता है।
- सवाई माधोपुर ,खेडला, लक्ष्मणगढ़ ,इंद्रगढ़ (कोटा) में लकड़ी के खिलौने व अन्य वस्तुओं पर खराद से लाख का पक्का काम किया जाता है।
- लाख से चूड़ियाँ, चूड़े, पशु-पक्षी, पेन्सिलें, पैन, काँच जड़ें लाख के खिलौने, बिछिया आदि तैयार किए जाते है।
कपड़ों से सम्बंधित हस्तकला
राजस्थान में वस्त्रों की रंगाई छपाई
रंगाई
- इस कार्य में राजस्थान की दूर-दूर तक ख्याति है। यह कला (Tie & Die) के नाम से प्रसिद्ध है। मनपसंद रंगों के डिजाइन प्राप्त करने हेतु कपड़े को बाँधकर फिर रंगा जाता है। खोलने पर तरह-तरह के डिजाइन बन जाते है। वस्त्रों में रंगाई करने वाले कारीगर रंगरेज या नीलगर कहलाते है।
रंगाई के प्रकार:
बंधेज
- राज्य का बंधेज या मोठड़ा विश्वविख्यात हैं। इसमें शेखावटी व मारवाड़ का बंधेज प्रसिद्ध हैं।
- जोधपुर तथा जयपुर का बंधेज प्रसिद्ध है।
- महिलाएं इस रंगाई की साड़ी तथा ओढ़नी पहनती है। जबकि पुरुषों द्वारा इस रंगाई के साफे बांधे जाते है।
- राज्य में बन्धेज की सबसे बड़ी मंडी जोधपुर में स्थित है तथा बन्धेज का सर्वाधिक काम सुजानगढ़ (चूरू) में होता है।
- बन्धेज कार्य के लिए जोधपुर के कारीगर तैय्यब खान को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।
लहरिया
- मोठड़ा – जोधपुर का मोठड़ा प्रसिद्ध है।
- फोहनीदार, पचलड़, खत, पाटली, जालदार, पल्लू, नगीना ये सब लहरिया के प्रकार है।
- राजस्थान में सावन महीने में विवाहित स्त्रियों द्वारा पहना जाने वाला ओढ़नी/ साड़ी वस्त्र है।
- ‘समुद्र लहर लहरिया’ जिसे समदर लहार भी कहा जाता है सबसे अधिक प्रसिद्ध (जयपुर) है।
- पुरुषों द्वारा इस रंगाई के साफे बंधे जाते है।
NOTE: चुनरी – जोधपुर – कपड़े पर छोटी – छोटी बिन्दिया धनक – जयपुर, जोधपुर – कपड़े पर बड़ी- बड़ी बिन्दिया लहरिया – प्रसिद्ध (जयपुर) – कपड़े पर एक तरफ से दुसरी तरफ तक धारिया मोठड़े – प्रसिद्ध (जोधपुर) – कपड़े पर एक दुसरे को काटती हुई धारियां |
पोमचा
- जयपुर का पोमचा प्रसिद्ध है।
- पोमचा वंश वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। यह पीले रंग का होता है।
- बच्चे के जन्म पर जच्चा (नवजात की माँ) के लिए पीहर पक्ष की ओर से लाया जाता है।
- चीड़ का पोमचा – हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित है।
- पाटोदा का लूगड़ा – सीकर के लक्ष्मणगढ़ तथा झंझुनूं का मुकन्दगढ़ का प्रसिद्ध है।
छपाई
- कपड़ों पर परंपरागत तरीके से हाथ से छपाई को ब्लॉक प्रिंटिंग कहते है। इस प्रिंटिग के लिए बाडमेर, बालोतरा, बगरू, सांगानेर, आकोला आदि स्थानों के छीपा जाति के लोग प्रसिद्ध है। सांगानेर के छीपे ‘नाम देवी छीपे’ कहलाते है।
छपाई के प्रकार:
दाबू प्रिन्ट
इस प्रकार की रंगाई-छपाई मे जिस स्थान पर रंग नहीं चढ़ाना हो, उसे लई या लुगदी से दबा देते है। यही लुगदी या लई जैसा पदार्थ ‘दाबू’ कहलाता है। हाथ की छपाई में काम आने वाला लकड़ी का छापा बटकाड़े कहलाता है जिसका निर्माण ख़रादिये द्वार किया जाता है। चित्तौड़गढ़ जिले का आकोला गांव दाबू प्रिन्ट के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियाँ इस रंगाई-छपाई के लिए अनुकूल है। पानी, मिट्टी और वनस्पति जैसे आवश्यकताएँ स्थानीय रूप से उपलब्ध है आकोला के दाबू प्रिन्ट के बेडशीट, कपड़ा, चून्दड़ी व फेंटिया देश-विदेश में प्रसिद्ध है।
- मिट्टी का दाबू – बालोतरा
- मोम का दाबू – सवाई माधोपुर
- गेहूँ के बींधण का दाबू – सांगानेर व बगरू में
सांगानेरी प्रिंट
- सांगानेरी छपाई लट्ठा या मलमल पर की जाती है। प्रिन्ट में प्राय: काला और लाल दो रंग की ज्यादा काम आते है। सांगानेर के छीपे ‘नाम देवी छीपे’ कहलाते है।
- सांगानेर में छपाई का कार्य चूनड़ी, दुपट्टा, गमछा, साफा, जाजम, तकिया आदि पर किया जाता है। सांगानेरी प्रिन्ट विदेशों में भी काफी लोकप्रिय है जिसका श्रेय मुन्नालाल गोयल को जाता है।
जाजम/आजम प्रिंट
- इस प्रिंट के लिए छिंपो का अकौला (चित्तौड़गढ) प्रसिद्ध है।इस प्रकार की छपाई में लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है।
बगरू प्रिंट
- बगरू (जयपुर) की छपाई काफी लोकप्रिय है। यह प्रिन्ट सांगानेरी प्रिंट की ही तरह है परंतु सांगानेरी छापे मे आगन सफेद होता है, जबकि बगरू प्रिन्ट का आंगन हरापन लिए होता है।
- बगरू प्रिंट में काला व लाल रंग विशेष रूप से प्रयुक्त होता है। बगरू की छपाई मे रासायनिक रंगों का प्रयोग नही होता है।
- बगरू में महादेव, लक्ष्मीनारायण, सत्यनारायण, हनुमान सहाय धनोपिया प्रसिद्ध छापे है।
मलीर प्रिंट
- मलीर प्रिंट बाड़मेर का प्रसिद्ध है। इस प्रिंट में कत्थई व काले रंग का प्रयोग किया जाता है। इसमें ‘टिन सेल छपाई’ पद्धति का प्रयोग किया जाता है।
अजरक प्रिंट
- बाड़मेर के अजरक प्रिंट के वस्त्र प्रसिद्ध है। इस प्रिंट में लाल और नीले रंग का प्रयोग किया जाता है तथा दोनों तरफ छपाई होती है। खत्री जाति इस कार्य को करने के लिए प्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त राजस्थान की अन्य प्रसिद्ध छपाई
- सुनहरी छपाई – मारोठ व कुचामन
- लाडनू प्रिंट – लाडनू (नागौर)
- रुपहली छपाई – चित्तौड़गढ़, कोटा व किशनगढ़
- चुनरी भांत की छपाई – आहड़ और भीलवाड़ा
- भौंडल (अभ्रक) की छपाई – भीलवाड़ा
- खड्टी की छपाई – जयपुर व उदयपुर
- टुकड़ी की छपाई – जालौर व मारोठ (नागौर)
- गोटे का कार्य – जयपुर, बातिक का कार्य खण्डेला में किया जाता हैं।
राजस्थानी मूर्तिकला
- राजस्थान में व्यवस्थित ढंग से मूर्तिकला का विकास मौर्यकाल से आरम्भ हुआ।
- डुंगरपुर संग्रहालय में गुप्तोतर कालीन शैव मूर्तियों का बाहुल्य है।
- 11 वीं -12 वीं शताब्दी में परमार वंश की राजधानी रही बांसवाड़ा का अर्थूना मूर्तियों का प्रमुख केन्द्र है।
- आभानेरी (दौसा) में गुप्त कालीन मूर्तिया मिली है।
- मध्यमिका (चित्तौड़) मूर्तिकला का उन्नत केन्द्र था।
- पत्थर की मूर्ति बनाने वाले सिलावट कहलाते हैं।
- भरतपुर मूर्तिकला के आरम्भिक विकास का केन्द्र रहा है। सन् 1933 ई. भरतपुर के नोह में जाख बाबा (यक्ष प्रतिमा) की विशाल मूर्ति मिली।
रमकड़ा – सोपस्टोन को तराश कर बनाए गए खिलौनों का काम रमकड़ा उद्योग कहलाता हैं। प्रमुख केन्द्र – गलियाकोट (डूंगरपुर)।
भगवान् गणेश की प्राचीन मूर्तियां
- खड़े गणेश मुर्ति – कोटा
- बाजणा गणेश मूर्ति – सिरोही
- त्रिनेत्र गणेश जी – रणथंभौर सवाई माधोपुर
- नृत्य गणेश मूर्ति (नीलकण्ठ) – अलवर
- ईश्किया गणेश जी –जोधपुर
- हेरम्ब गणपति (शेरपर सवार) – बीकानेर में स्थापित है।
राजस्थानी मूर्तिकला की विशेषता :
क्र.सं. | विशेषता | स्थान |
1. | पत्थर की मूर्तियाँ | जोधपुर |
2. | लाल पत्थर की मूर्तियाँ भूरे | धौलपुर व थानागाजी (अलवर) |
3. | पीले पत्थर की मूर्तियाँ | जैसलमेर |
4. | संगमरमर का प्रमुख केन्द्र | मकराना |
5. | सफ़ेद संगमरमर की मूर्तियाँ | जयपुर, (किशोरी ग्राम)अलवर |
6. | संगमरमर पर मीनाकारी | जयपुर |
7. | संगमरमर पर पच्चीकारी | भीलवाड़ा |
8. | गुलाबी संगमरमर की मूर्तियाँ | बाबरमाल (उदयपुर) |
9. | पत्थर के कलात्मक खिलौने | गलियाकोट (डूंगरपुर) |
10. | काले संगमरमर की मूर्तियाँ | डूंगरपुर, व बाँसवाड़ा के निकट तलवाड़ा में सोमपुरा जाति के मूर्तिकार बनाते हैं। |
कपड़े की बुनाई हस्तकला
गलीचे और दरियाँ
जयपुर गलीचे के काम के लिए प्रसिद्ध है। सूत और ऊन के ताने-बाने लगाकर गलीचे की बुनाई की जाती है। बुनाई मे जितना बारीक धागा और गाँठे होती है, बनावट उतनी ही उत्कृष्ट समझी जाती है।
- बीकानेर जेल में गलीचा निर्माण का कार्य होता था जिसे सर्वाधिक सुंदर माना जाता था।
- गलीचे का काम जयपुर ब्यावर किशनगढ़ टोंक मालपुरा केकड़ी भीलवाड़ा कोटा सभी जगह होता है। जयपुर के गलीचे गहरे रंग, डिजाइन और शिल्प कौशल की दृष्टि से प्रसिद्ध है।
- इराक के शाह अब्बास द्वारा मिर्जा राजा जयसिंह को भेंट स्वरूप दिया गया गलीचा जिसमें बगीचा बना हुआ है संसार के अद्वितीय गलीचों में से है इसे राजकीय संग्रहालय(जयपुर) में रखा गया है।
गलीचा महंगा होने के कारण आजकल दरियों का प्रचलन बढ़ गया है। दरियो में 20 प्लाई का धागा बढ़िया समझा जाता है। दरिया टोंक जोधपुर नागौर बाड़मेर भीलवाड़ा शाहपुरा केकड़ी मालपुरा आदि स्थानों पर बनाई जाती है। जयपुर और बीकानेर की जेलो मे दरियाँ बनाई जाती हैं।
दरी-निर्माण के मुख्य केन्द्र:
- लवाण गाँव (दौसा)
- सालावास गांव(जोधपुर)
- टांकला गांव (नागौर)
- टोंक ऊनी नमदों के लिए प्रसिद्ध है।
मंसूरिया /कोटा डोरिया
कोटा से 15 किमी. दूर कैथून गांव के बुनकरों द्वारा सूती धागे के साथ रेशमी धागे और जरी का प्रयोग करके की जाने वाली चौकोर बुनाई को मंसूरिया या कोटा डोरिया बुनाई कहते है। असली कोटा डोरिया साड़ी की पहचान वर्गों की संख्या(300) से की जाती है। इसे अनेक रंगों और आकर्षक डिजाइनो मे बुना जाता है।
बुनाई का कार्य बुनकर अपने घर मे खड्डी लगाकर करते है।
- 1761 में कोटा के दीवान झाला जालिमसिंह ने मैसूर के बुनकर महमूद मसूरिया को कोटा बुलाया और यहां हथकरघा उद्योग की स्थापना कर साड़ी बुनना शुरू करवाया, उसी के नाम पर साड़ी का नाम मसूरिया साड़ी हो गया।
- 1999-2000 केंद्रीय कानून भौगोलिक चिन्हीकरण (GI) अधिनियम के अंतर्गत ‘कोटा डोरिया’ को पेटेंट करवाया गया है।
- कैथून(कोटा) के अतिरिक्त मांगरोल(बांरा) की प्रमुख प्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त राजस्थान की अन्य प्रसिद्ध बुनाई
- नमदे – टोंक, बीकानेर के प्रमुख प्रसिद्ध है
- लोई – नापासर(बीकानेर) की प्रमुख प्रसिद्ध है।
- वियना व फारसी गलीचे – बीकानेर के प्रमुख प्रसिद है
- खेसले – लेटा(जालौर), मेड़ता(नागौर) के प्रमुख प्रसिद्ध है।
- ऊनी कंबल –इरानी एवं भारतीय पद्धति के कालीन जयपुर, बाड़मेर, बीकानेर ,जोधपुर, अजमेर के प्रमुख प्रसिद्ध है
चमड़ा हस्तशिल्प
चमड़े का कलात्मक सामान राजस्थान की प्रमुख विशेषता है। यहां की कलात्मक मोजड़ियां, जूतियां, पर्स, बैग, बेल्ट, आसन तथा बीकानेर में ऊंट की खाल से बनाये जाने वाले सजावटी सामान प्रमुख हैं। ये मुख्य रुप में जोधपुर, उदयपुर, जयपुर, अजमेर, बाड़मेर आदि स्थानों पर बनाये जाते है।
- दुल्हा- दुल्हन की जुतियां को बिनोटा कहा जाता है।
- नदबई तहसील (भरतपुर) की जूतियां भी प्रसिद्ध है।
- नागरी एवं मोजडि़या जयपुर, जोधपुर की प्रमुख प्रसिद्ध है।
- कशीदावाली जुतियां – भीनमाल (जालौर) की प्रमुख प्रसिद्ध है।
- बड़ (नागौर) मे बनने वाली कशीदायुक्त जूतियों की एक परियोजना संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा U.N.D.P. के सहयोग से चलाई जा रही है।
कागज हस्तकला
कागज बनाने की कला – सांगानेर, सवाई माधोपुर की प्रमुख प्रसिद्ध है।
कुट्टी का काम (पेपर मेसी)
- कुट्टी के काम के लिए जयपुर विख्यात है।
- कुट्टी से चौपाये पशु और पक्षी बनाये जाते है।
- आवश्यक वस्तुए – कागज, चाक, मिट्टी फेवीकोल, गोंद आदि को गलाकार व पीसकर लुगदी बना ली जाती है।
- आकृति बनाने के लिए उस वस्तु के साँचे या मॉडल मे तैयार लुगदी को दबा कर लगा दिया जाता है। सूखने पर फिनिशिंग देते हुए (खड़िया या चाइना क्ले से) इच्छित रंग कर दिया जाता है।
- महाराजा रामसिंह के शासनकाल (1835-1880 ई.) से जयपुर मे कुट्टी का काम हो रहा है। कोई
राजस्थान की हस्तकला – काष्ठ/लकड़ी हस्तकला
- राजस्थान में खाती व सुथार जाति के लोग लकड़ी के कार्य में निपुण होते हैं।
- लकड़ी पर नक्काशी, खिलौने एवं सजावट का सामान उदयपुर, बीकानेर, सवाईमाधोपुर, तथा बाड़मेर और चित्तौड़गढ़ के बस्सी गांव में बनाये जाते है।
- बस्सी गांव लकड़ी के शेर, हाथी, घोड़े, मोर, चोपड़ा, बाजोट, गणगौर, हिंडोला एवं लोकनाट्य में प्रयुक्त विभिन्न वस्तुएं बेवाण व कावड़ निर्माण के लिए प्रसिद्ध हैI
- बाजोट – चौकी को कहते हैं।
- लकड़ी के खिलौने – मेड़ता(नागौर)
- लकड़ी के फर्नीचर के लिए डूंगरपुर का जेठाना प्रसिद्ध है।
- उदयपुर में लकड़ी की कठपुतियों, लकड़ी के झूलों का प्रसिद्ध निर्माण होता है।
राजस्थान में हस्तशिल्प विकास हेतु सरकारी प्रयास
राजस्थान लघु उद्योग निगम (राजसिको)- स्थापना :- 1961
- यह केन्द्र राज्य में विलुप्त होती हस्तकलाओं के लिए नवीन प्रौद्योगिकी ज्ञान उपलब्ध करवाकर विभिन्न प्रकार की संस्थाओं के माध्यम से हस्तशिल्पकारों व उद्यमियों का संरक्षण करना हैं।
- गलीचा प्रशिक्षण केन्द्र – राजसिको द्वारा संचालित तथा अनुसूचित जाति विकास निगम द्वारा वित्त पोषित यह केन्द्र राज्य के विभिन्न जिलों में कार्यरत हैं।
- राजसिको कमाण्ड एरिया योजना के अन्तर्गत राज्य में विभिन्न स्थानों पर कार्यरत हैं।
- राजसिको द्वारा ‘राजस्थली एम्पोरियम’ द्वारा राज्य में हस्तशिल्प की वस्तुओं का विपणन किया जा रहा हैं।
- लघु उद्योग विकास निगम राज्य में लघु उद्योगों को तकनीकी व आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाता हैं।
- सांगानेर (जयपुर) में हस्तशिल्प कागज राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम व खादी ग्रामोद्योग आयोग के संयुक्त प्रयासों से की गई हैं।
- 1983 में स्थापित भारत सरकार के राष्ट्रीय उद्यम विकास बोर्ड और राष्ट्रीय उद्यमशीलता व लघु व्यापार विकास संस्थान लघु उद्योगो से संबंधित हैं।
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