राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं एवं पुरातात्विक स्थल

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं एवं पुरातात्विक स्थल (Ancient Civilizations of Rajasthan): आज के आर्टिकल में हम राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं एवं पुरातात्विक स्थल के बारे में जानेंगे। आज का हमारा यह आर्टिकल RPSC,RAS, RSMSSB, REET, SI, Rajasthan Police, एवं अन्य परीक्षाओं की दृष्टि से अतिमहत्वपुर्ण है। राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं एवं पुरातात्विक स्थल रंगमहल सभ्यता, राजस्थान की प्रमुख प्रागैतिहासिक सभ्यताएं, राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं से सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी यहाँ दी गई है।

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं एवं पुरातात्विक स्थल-https://myrpsc.in

राजस्थान भारत का एक महत्वपूर्ण प्रांत है। यह 30 मार्च 1949 को भारत का एक ऐसा प्रांत बना, जिसमें तत्कालीन राजपूताना की ताकतवर रियासतें विलीन हुईं।

राजस्थान शब्द का अर्थ है: ‘राजाओं का स्थान’ क्योंकि ये राजपूत राजाओ से रक्षित भूमि थी। इस कारण इसे राजस्थान कहा गया था। भारत के संवैधानिक-इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी

इतिहास को प्रागैतिहासिक काल, आद्यऐतिहासिक काल एवं ऐतिहासिक काल में विभाजित किया जाता है।

प्रागैतिहासिक काल (prehistoric times):

  • प्रागैतिहासिक काल में मानव के इतिहास के बारे में कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं होती है।
  • इस काल के विषय में जो भी जानकारी मिलती है वह पाषाण के उपकरणों, मिट्टी के बर्तनों, खिलौने आदि से प्राप्त होती है।

आद्य ऐतिहासिक काल (Epochal period):

  • ऐसा काल जिसके संबंध में लिखित सामग्री उपलब्ध है। लेकिन जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है उसे आद्यऐतिसाहिक काल कहते हैं। जैसे- सिन्धु घाटी सभ्यता।

 ऐतिहासिक काल (Historical period):

  • ऐसा काल जिसके संबंध में प्राप्त लिखित सामग्री को पढ़ा जा सकता है। उसे ऐतिहासिक काल कहते हैं।
पाषाण काल – 5 लाख ईसा पुर्व से 4000 ईसा पुर्व
ताम्र पाषाण काल – 4000 ईसा पुर्व – 1000 ईसा पुर्व
लौह युग – 1000 ईसा पुर्व से वर्तमान तक  

राजस्थान की प्रमुख सभ्यताएँ :-

कालीबंगा सभ्यता

कालीबंगा प्राचीन सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदी के बायें तट पर हनुमानगढ़ जिले में है।

खुदाई कार्य: स्वतंत्रता के बाद सर्वप्रथम इसकी खुदाई 1952 ई. में अमलानन्द घोष द्वारा की गयी।

उत्खनन कार्य: 1961-1969 में ब्रजवासी लाल (बी.वी.लाल) व बालकृष्ण थापर (बी.के. थापर) के निर्देशन में उत्खनन कार्य किया गया।

कालीबंगा से पूर्व-हड़प्पाकालीन, हड़प्पाकालीन और उत्तर हड़प्पाकालीन साक्ष्य मिले है।

कालीबंगा कांस्ययुगीन सभ्यता मानी जाती है।

कालीबंगा में तीन टीले प्राप्त हुये हैं।

  • KLB1 – पश्चिम में छोटा
  • KLB2- मध्य में बड़ा
  • KLB3 – पूर्व में सबसे छोटा

इनमें पूर्वी टीला नगर टीला है, जहाँ से साधारण बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। पश्चिमी टीला दुर्ग टीले के रूप में है। दोनों टीलों के चारों ओर भी सुरक्षा प्राचीर बनी हुई थी।

नगर योजना

  • कालीबंगा की नगर योजना सिन्धु घाटी की नगर योजना के अनुरूप दिखाई देती है।
  • पत्थर के अभाव के कारण दीवारें कच्ची ईंटों से बनती थी और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था।
  • यहाँ संभवतः धूप में पकाई गई ईंटों का प्रयोग किया जाता था।
  • व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ तथा कूड़ा डालने के मिट्टी के बर्तन नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे।
  • कालीबंगा से पानी के निकास के लिए लकड़ी व ईंटों की नालियाँ बनी हुई मिली हैं।

कृषि

  • पूर्व-हड़प्पाकालीन स्थल से जुते हुए खेत के प्रमाण मिले हैं, जो संसार में प्राचीनतम हैं।
  • ताम्र से बने कृषि के कई औजार भी यहाँ की आर्थिक उन्नति के परिचायक हैं।

ताँबे के औजार व मूर्तियाँ

  • कालीबंगा में उत्खन्न से प्राप्त अवशेषों में ताँबे (धातु) से निर्मित औज़ार, हथियार व मूर्तियाँ मिली हैं, जो यह प्रकट करती है कि मानव प्रस्तर युग से ताम्रयुग में प्रवेश कर चुका था।

मुहरें

  • कालीबंगा से सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता की मिट्टी पर बनी मुहरें मिली हैं, जिन पर वृषभ व अन्य पशुओं के चित्र व र्तृधव लिपि में अंकित लेख है जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। वह लिपि दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी।

लिपि

  • यहाँ से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों और मुहरों पर जो लिपि अंकित पाई गई है, वह सैन्धवकालीन लिपि (ब्रूस्ट्रोफेदन लिपि) के समान थी जो दायें से बाऐं की ओर लिखी जाती थी। इस लिपि को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है।

धर्म संबंधी अवशेष

  • यहाँ से धार्मिक प्रमाण के रूप में अग्निवेदियों के साक्ष्य मिले है।
  • मोहनजोदड़ो व हड़प्पा की भाँति कालीबंगा से मातृदेवी की मूर्ति नहीं मिली है। इसके स्थान पर आयाताकार वर्तुलाकार व अंडाकार अग्निवेदियाँ तथा बैल, बारसिंघे की हड्डियाँ यह प्रकट करती है कि यहाँ का मानव यज्ञ में पशु-बलि भी देता था।
  • कालीबंगा के निवासियों की मृतक के प्रति श्रद्धा तथा धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करने वाली तीन समाधियाँ मिली हैं।

विशेषताएं

  • कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ काली चूड़ियां है ।
  • नदी- सरस्वती (घग्घर)
  • सर्वप्रथम इसकी खुदाई 1952 ई. में अमलानन्द घोष द्वारा तथा 1961-1969 में ब्रजवासी लाल (बी.वी.लाल) व बालकृष्ण थापर (बी.के. थापर) द्वारा की गयी।
  • यहाँ पर से मकानों से पानी निकालने के लिए लकड़ी की नालियों का प्रयोग किया जाता था।
  • कालीबंगा स्वतंत्र भारत का पहला पुरातात्विक स्थल है जिसका स्वतंत्रता के बाद पहली बार उत्खनन किया गया।
  • कालीबंगा को ‘दीन-हीनबस्ती भी कहा जाता है।
  • विश्व में सर्वप्रथम भूकम्प के साक्ष्य कालीबंगा में ही मिले हैं।
  • कालीबंगा से कपालछेदन क्रिया का प्रमाण मिलता है।
  • कालीबंगा से किसी भी प्रकार के मंदिरों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं।
  • कालीबंगा निवासी गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर के साथ-साथ ऊँट एवं कुत्ता भी पालते थे।
  • पाकिस्तान के कोटदीजी नामक स्थान पर प्राप्त पुरातात्विक अवशेष कालीबंगा के अवशेषों से काफी मिलते थे।
  • कालीबंगा के नगरों की सड़कें समकोण पर काटती थी।
  • कालीबंगा से सात अग्निवेदियाँ प्राप्त हुई हैं।

तीसरी राजधानी: डॉ. दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सैंधव सभ्यता की तीसरी राजधानी कहा है (पहली हड़प्पा तथा दूसरी मोहनजोदड़ो)।

  • यहाँ से एक ही समय में दो फसलें उगाने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं जिसमें गेहूँ तथा जौ एक साथ बोये जाते थे।
  • कालीबंगा एक नगरीय प्रधान सभ्यता थी तथा यहाँ पर नगर निर्माण नक्शे के आधार पर किया गया था।
  • कालीबंगा के लोग मुख्यतया शव को दफनाते थे।
  • कालीबंगा सैंधव सभ्यता का एकमात्र ऐसा स्थल है जहाँ से मातृदेवी की मूर्तियां प्राप्त नहीं हुई है।
  • कालीबंगा से मैसोपोटामिया की मिट्‌टी से निर्मित मुहर प्राप्त हुई है।
  • वर्ष 1961 में कालीबंगा अवशेष पर भारत सरकार द्वारा 90 पैसों का डाक टिकट जारी किया गया।
  • यहां से सुती वस्त्र में लिपटा हुआ ‘उस्तरा‘ प्राप्त हुआ है।

नोट :- सरस्वती नदी का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मण्डल में मिलता है। सरस्वती नदी की उत्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गई है। सरस्वती नदी का वर्तमान स्वरूप घग्घर नदी है। घग्घर नदी को सोतर नदी, मृत नदी, लेटी हुई नदी, भी कहा जाता है।

बैराठ सभ्यता

आहड़ सभ्यता (उदयपुर)

आहड़ सभ्यता के उपनाम – बनास सभ्यता, आघाटपुर, स्थानीय भाषा में धूलकोट, ताम्रवती नगरी आदि।

  • नदी – आयड़ (बेड़च नदी के तट पर)
  • समय – 1900 ईसा पुर्व से 1200 ईसा पुर्व
  • काल – ताम्र पाषाण काल

आहड़ सभ्यता के खोजकर्ता – आहड़ सभ्यता की खोज 1953 ईस्वी में अक्षय कीर्ति व्यास ने की थी।

आहड़ सभ्यता का उत्खनन – आहड़ सभ्यता का उत्खनन 1955-56 में रतनचंद्र अग्रवाल ने किया था।

आहड़ सभ्यता का सर्वाधिक उत्खनन पूना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हंसमुख धीरजलाल संकलिया ने किया।

आहड़ सभ्यता से सर्वाधिक तांबे के उपकरण प्राप्त हुए हैं, इसलिए इसे ताम्र नगरी कहते हैं।

  • आहड़ सभ्यता से तांबा गलाने की भट्टी, मिट्टी से बनी वृषभ/बैल आकृति प्राप्त हुई जिसे ‘बनासियल बुल’ कहा गया, छपाई करने के ठप्पे, आटा पीसने की चक्की, लाल काली मिट्टी के बर्तन, अनाज रखने की मिट्टी की कोठी (गैरों/कोट) आदि प्राप्त हुए हैं। आहड़ से अनाज रखने के मृदभांड प्राप्त हुए हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘गोरे’ /‘कोठ’ कहा जाता है।
  • आहड़ सभ्यता के लोग चावल से परिचित थे तथा चांदी धातु से अपरिचित थे
  • मकानों में एक से अधिक चूल्हे प्राप्त हुए हैं, जो शायद बड़े परिवार या सामूहिक भोजन व्यवस्था को दर्शाते हैं। एक घर में एक साथ छ: चूल्हे भी प्राप्त हुए हैं।
  • आहड़वासी शव को आभूषणों सहित गाड़ते थे जिसका सिर उत्तर में एवं पैर दक्षिण में होते थे।
  • तांबे की 6 मुद्रायें (सिक्के) और 3 मोहरें मिली हैं।
  • यहाँ से प्राप्त एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता का चित्रण किया गया है।

गिलूण्ड सभ्यता (राजसमंद)

गिलूण्ड सभ्यता राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित है इस सभ्यता को ताम्रयुगीन सभ्यता भी कहते है। यह राजसमन्द जिले में बनास नदी के तट पर स्थित है। राजसमंद में स्थित ‘मोडिया मगरी’ नामक टीले का संबंध गिलूण्ड सभ्यता से है।

  • खोज कर्ता / उत्खनन कर्ता – 1957- 58 वी. बी.(वृजबासी) लाल
  • यहाँ पर आहड़ सभ्यता का प्रसार था तथा इसी के समय यहाँ मृदभांड, मिट्‌टी की पशु आकृतियां आदि के चित्र मिले हैं।
  • गिलूंड के मृदभांडो पर ज्यामितीय चित्रांकन के अलावा प्राकृतिक चित्रांकन भी किया गया है।
  • 5 प्रकार के मृदभाण्ड (मिट्टी के बर्तन)
  • हाथी दांत की चूड़ियां मिली है।

बालाथल सभ्यता

बालाथल एक ऐतिहासिक ग्राम जो उदयपुर (राजस्थान) नगर से 42 किमी दक्षिण-पूर्व में वल्लभ नगर तहसील में बालाथल स्थित है। बालाथल ग्राम के पूर्वी छोर पर एक बड़ा टीला है जो लगभग 5 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है।

नदी – बनास

समय – 1900 ईसा पुर्व से 1200 ईसा पुर्व तक

आहड़ सभ्यता से सम्बधित ताम्रपाषाण युगीन स्थल

  • खोजकत्र्ता व उत्खनन कर्ता – 1993 वी. एन. मिश्र (विरेन्द्र नाथ मिश्र)
  • बालाथल में उत्खनन से एक 11 कमरों के विशाल भवन के अवशेष मिले है।
  • यहाँ के लोग बर्तन बनाने तथा कपड़ा बुनने के बारे में जानकारी रखते थे। बालाथल से लौहा गलाने की 5 भटि्टयाँ प्राप्त हुई हैं।
  • यहाँ से 4000 वर्ष पुराना कंकाल मिला है जिसको भारत में कुष्ठ रोग का सबसे पुराना प्रमाण माना जाता है।
  • यहाँ से योगी मुद्रा में शवाधान का प्रमाण प्राप्त हुआ है। बालाथल में अधिकांश उपकरण तांबे के बने प्राप्त हुए हैं। यहाँ से तांबे के बने आभूषण भी प्राप्त हुए है।
  • यहाँ के लोग कृषि, शिकार तथा पशुपालन आदि से परिचित थे। बालाथल से प्राप्त बैल व कुत्ते की मृण्मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय है।

गणेश्वर सभ्यता

उपनाम – ताम्र युगीन सभ्यता, पूर्व हड़प्पा कालीन सभ्यता, ताम्र संचयी संस्कृति आदि।

गणेश्वर सभ्यता सीकर जिले में कांतली नदी के मुहाने पर विकसित हुई है।

गणेश्वर सभ्यता 2800 ईसा पूर्व में विकसित हुई थी।

गणेश्वर सभ्यता की खोज सर्वप्रथम 1972 ईस्वी में रतनचंद्र अग्रवाल ने की थी।

गणेश्वर सभ्यता का उत्खनन 1977 ईस्वी में रतनचंद्र अग्रवाल एवं श्री विजय कुमार ने किया था।

गणेश्वर को ‘ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी’ कहा जाता है।

NOTE: ताम्र जिला झुंझुनू को व ताम्रवती नगरी आहड़ को कहा जाता है।

  • गणेश्वर को ‘पुरातत्व का पुष्कर’ भी कहा जाता है।
  • गणेश्वर से तांबे का बाण एवं मछली पकड़ने का कांटा प्राप्त हुआ है। गणेश्वर से उत्खनन में जो मृदभांड प्राप्त हुए है उन्हें कपिषवर्णी मृदपात्र कहते हैं। गणेश्वर से मिट्‌टी के छल्लेदार बर्तन भी प्राप्त हुए हैं।
  • यहां से तांबे का निर्यात भी किया जाता था। सिंधु घाटी के लोगों को तांबे की आपूर्ति यहीं से होती थी। भारत में पहली बार किसी स्थान से इतनी मात्रा में ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं। इन उपकरणों में तीर, भाले, सूइयां, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के कांटे आदि शामिल है।

बागौर सभ्यता

यह एक पाषाणकालीन सभ्यता स्थल है। यह स्थल भीलवाड़ा की मांडल तहसील में कोठारी नदी के तट पर स्थित है।

  • महासतियों का टीला :- बागोर सभ्यता का उत्खनन स्थल
  • उत्खनन कार्य 1967-68 में डॉ. विरेन्द्रनाथ मिश्र, डॉ. एल.एस. लेश्निक व डेक्कन कॉलेज पूना तथा राजस्थान पुरातत्व विभाग के सहयोग से किया गया।
  • बागोर में कृषि एवं पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
  • बागोर की सभ्यता को ‘आदिम संस्कृति का संग्रहालय माना जाता है। यहाँ से 14 प्रकार की कृषि किए जाने के अवशेष मिले हैं।
  • यहाँ के मकान पत्थर से बने थे तथा फर्श में भी पत्थरों को समतल कर जमाया जाता था। यहाँ से प्राप्त पाषाण उपकरणों में ब्लेड, छिद्रक, स्क्रेपर तथा चांद्रिक आदि

चंद्रावती सभ्यता

चंद्रावती सभ्यता – सिरोही

चंद्रावती सभ्यता की खोज सर्वप्रथम 4 जनवरी 2014 को जापान के पुरातत्व विशेषज्ञ हिण्डो हितोशी एवं उदयपुर राजस्थान विद्यापीठ के प्रोफेसर जीवनलाल खरगवाल ने प्रारंभ की थी।     

  • गरूड़ासन पर विराजित विष्णु भगवान की मुर्ति मिली है।
  • कर्नल जेम्स टोड ने भी इस सभ्यता का जिक्र अपनी पुस्तक द वेस्टर्न इंडिया में किया है।

धौलीमगरा सभ्यता

  • जिला – उदयपुर में स्थित है।
  • आयड़ सभ्यता का नवीनतम स्थल

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