राजस्थान का इतिहास जानने के प्रमुख स्त्रोत: आज के आर्टिकल में हम राजस्थान इतिहास जानने के प्रमुख स्त्रोत के बारे में जानेंगे। आज का हमारा यह आर्टिकल RPSC,RAS, RSMSSB, REET, SI, Rajasthan Police, एवं अन्य परीक्षाओं की दृष्टि से अतिमहत्वपुर्ण है। राजस्थान का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोतों से सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी यहाँ दी गई है।
इतिहास के स्रोतों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – पुरातात्विक और साहित्यिक स्रोत
पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources)
राजस्थान के इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्रोत सबसे प्रामाणिक प्रमाण हैं। इनमें मुख्य रूप से उत्खनन सामग्री, शिलालेख, सिक्के, स्मारक, ताम्र पत्र, भवन, मूर्तियां, चित्र आदि शामिल हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना 1861 ई. में अलेक्जेंडर कनिंघम के नेतृत्व में की गई थी। राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण का कार्य सबसे पहले 1871 ई. में कार्लाइल ने शुरू किया था।
राजस्थान पुरातत्व विभाग–
- मुख्यालय – जयपुर
- स्थापना – 1950
- राजस्थान मे पुरातात्विक सर्वेक्षण का कार्य करने A.C.L. कार्लाइल को दिया जाता है
राजस्थान इतिहास को जानने के स्त्रोतः- इतिहास का शाब्दिक अर्थ- ऐसा निश्चित रूप से हुआ है। इतिहास के जनक यूनान के हेरोडोटस को माना जाता हैं लगभग 2500 वर्ष पूर्व उन्होने ” हिस्टोरिका” नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में उन्होने भारत का उल्लेख भी किया हैं।
भारतीय इतिहास के जनक महाभारत के लेखक वेद व्यास माने जाते है। महाभारत का प्राचीन नाम “जय सहिता” था।
राजस्थान इतिहास के जनक कर्नल जेम्स टाड कहे जाते है। वे 1818 से 1821 के मध्य मेवाड़ (उदयपुर) प्राप्त के पोलिटिकल एजेन्ट थे उन्होने घोडे पर धूम-धूम कर राजस्थान के इतिहास को लिखा।
अतः कर्नल टॉड को “घोडे वाले बाबा” कहा जाता है। इन्होने “एनाल्स एण्ड एंटीक्वीटीज ऑफ राजस्थान” नामक पुस्तकालय का लन्दन में 1829 में प्रकाशन करवाया।
- गौरी शंकर हिराचन्द ओझा (जी.एच. ओझा) ने इसका सर्वप्रथम हिन्दी में अनुवाद करवाया। इस पुस्तक का दूसरा नाम “सैटर्ल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट ऑफ इंडिया” है।
- कर्नल जेम्स टॉड की एक अनय पुस्तक “टेªवल इन वेस्र्टन इण्डिया” का इसकी मृत्यु के पश्चात 1837 में इनकी पत्नी ने प्रकाशन करवाया।
राजस्थान के इतिहास को जानने के स्त्रोत
पुरातात्विक स्त्रोत | पुरालेखागारिय स्त्रोंत | साहित्यिक स्त्रोत |
सिक्के | हकीकत बही | राजस्थानी साहित्य |
शिलालेख | हुकूमत बही | संस्कृत साहित्य |
ताम्रपत्र | कमठाना बही | फारसी साहित्य |
खरीता बही |
पुरातात्विक स्त्रोत
सिक्के
(Coins) सिक्को के अध्ययन को न्यूमिसमेटिक्स कहा जाता है। राजपूताने की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब ने 1893 ई. में ‘‘द करेंसीज ऑफ दि हिन्दू स्टेट्स ऑफ राजपूताना’’ नामक पुस्तक लिखी थी। भारत में पहली बार धातु के सिक्के महात्मा बुद्ध के काल में बनने आरम्भ हुए थे, लेकिन सिक्कों पर लेख व तिथियों का अंकन यूनानी शासकों के समय का मिलता हैं। यूनानियों से पहले भारत में आहत सिक्के थे।
भारत में सर्वप्रथम सिक्को का प्रचलन 2500 वर्ष पूर्व हुआ ये मुद्राऐं खुदाई के दोरान खण्डित अवस्था में प्राप्त हुई है। अतः इन्हें आहत मुद्राएं कहा जाता है। इन पर विशेष चिन्ह बने हुए है। अतः इन्हें पंचमार्क सिक्के भी कहते है। ये मुद्राऐं वर्गाकार, आयाताकार व वृत्ताकार रूप में है। कोटिल्य के अर्थशास्त्र में इन्हें पण/कार्षापण की संज्ञा दी गई ये अधिकांशतः चांदी धातु के थे।
भारत में पहली बार सोने के सिक्के कुषाण वंश के शासक विमकडफिसस ने चलाये थे। सबसे ज्यादा सोने के सिक्के गुप्तकाल के मिले हैं, गुप्तकाल में सोने के सिक्कों को दीनार कहा जाता था। सर्वाधिक गुप्तकालीन सिक्के भरतपुर के बयाना से मिले है।
राजस्थान के चैहान वंश ने राज्य में सर्वप्रथम अपनी मुद्राऐं जारी की। उनमें “द्रम्म” और “विशोपक” तांबे के “रूपक” चांदी के “दिनार” सोने का सिक्का था। मध्य युग में अकबर ने राजस्थान में “सिक्का ए एलची” जारी किया। अकबर के आमेर से अच्छे संबंध थें अतः वहां सर्व प्रथम टकसाल खोलने की अनुमती प्रदान की गई।
राजस्थान की रियासतों में प्रचलित प्रमुख सिक्के
जयपुर रियासत के सिक्के– जयपुर की टकसाल का चिह्न छ: शाखाओं वाला झाड होने के कारण जयपुरी सिक्कों को झाड़शाही सिक्के कहा गया है । सवाई जयसिंह द्वितीय ने सन् 1728 ईं. में जयपुर नगर में इस टकसाल की स्थापना की । राजस्थान में सर्वप्रथम सिक्के ढालने की टकसाल यहीं पर स्थापित की गई थी। यहाँ पर झाड़़शाही सिक्का , रसकपूर सिक्का, हाली सिक्का, पुराना झाड़शाही सिक्का, मुहम्मदशाही सिक्का आदि प्रचलित थे। माधोसिंह के रूपये को ‘हाली’ सिक्का कहते थे ।
जोधपुर राज्य के सिक्के– महाराजा विजयसिंह द्वारा प्रचलित होने के कारण ये ‘ विजयशाही’ कहलाते थे। यहाँ पर पंचमार्क, द्रम्प, सेझेनियम, गजशाही सिक्का, लल्लूलिया रूपया, विजयशाही, तख्तसिंह तथा तांबे ढ़ब्बूशाही व भीमशाही सिक्कों का प्रचलन था। जोधपुर राज्य में सोने के सिक्कों को मोहर कहा जाता था।
चैहानों के सिक्के– चैहानों का 1192 ई. का एक सिक्का है जिस पर मोहम्मद बिन कासिम और पृथ्वीराज का नाम अंकित है। चैहानों में द्रम्प विषोपक, रूपक, दीनार आदि सिक्के भी चलते थे।
मेवाड़ रियासत में प्रचलित सिक्के– मेवाड़ की स्थानीय टकसालों में मुगलों का ‘‘एलची‘‘ सिक्का बनता था। मेवाड़ में चांदी का रूपक, तांबें के ढींगला, त्रिषूलिया, भींड़रिया, भिलाड़ी, कर्षापण तथा नाथद्वारिया सिक्के प्रचलित थे। यहाँ पर गधिया, टका , दिरहम नामक सिक्के चांदी व तांबे के थे। सलूम्बर में तांबे का पदमशाही सिक्का चलता था।
डूंगरपुर राज्य के सिक्के- यहाँ पर उदयशाही, चितौड़ी व सालिमशाही सिक्कों का प्रचलन था।
प्रतिहारों के सिक्के– आदिवराह, द्रम्प, विनायक द्रम्प, वराही द्रम्प नामक सिक्के चलते थे।
धौलपुर राज्य के सिक्के – धौलपुर में 1804 ईं से सिक्के ढलना शूरू हुये । यहाँ के सिक्के को ‘ तमंचा शाही ‘ कहा जाता था, क्योंकि उन पर तमंचे का चिह्न अंकित होता था
बूंदी राज्य के सिक्के | ग्यारहसना, हाली, रामशाही, कटारशाही, चेहरेशाही |
कोटा राज्य के सिक्के | मदनशाही, गुमानशाही, मुहम्मद बींदारबक्ष |
प्रतापगढ़ राज्य के सिक्के | आलमशाही व नया सालिमशाही |
बांसवाड़ा राज्य के सिक्के | सालिमशाही व लक्ष्मणशाही सिक्के |
करौली राज्य के सिक्के | कटार झाड़शाही व माणकशाही |
बीकानेर राज्य के सिक्के | गजशाही नामक चांदी का सिक्का |
किशनगढ राज्य के सिक्के | चांदौड़ी रूपया, शाहआलम |
झालावाड़ राज्य के सिक्के | मदनशाही, पृथ्वीशाही |
भरतपुर राज्य का सिक्का | चांदी का शाहआलम |
सिरोही राज्य के सिक्के | भीलाड़ी व ढब्बूशाही |
अलवर राज्य के सिक्के | रावशाही, |
शाहपुरा रियासत | ग्यारसंदिया, माधोशाही |
जैसलमेर के सिक्के | अखेशाही , डोडिया |
भारत में सर्वप्रथम चांदी के सिक्के शक शासकों ने चलाये थे। ब्रिटिश भारत में राजस्थान में सबसे प्राचीन सिक्का ’’चांदी का कलदार’’ था।
सिक्कों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य-
- चौहान वंश के शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय के सिक्कों पर वृषभ तथा अष्वारोही का अंकन मिला हैं।
- प्रतिहार शासक मिहिरभोज के सिक्कोंe पर वराह का अवतार दिखाया गया हैं।
- 12 राशियों के सिक्के जहांगीर के काल के मिले हैं।
शिलालेख /अभिलेख (Abhilekh)
राजस्थान में 162 शिलालेख प्राप्त हुए है इनका वर्णन ”वार्षिक रिपोर्ट राजपुताना अजमेर “ में प्रकाशित हो चुका है राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण का कार्य सर्वप्रथम 1871 ई. में प्रारंभ किया गया था
शिलालेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते है। शिलालेखों का अध्ययन ‘एपीग्राफी’ (पुरालेखशास्त्र) कहलाता है।
भारत में सर्वप्रथम अशोक मौर्य ने शिलालेख जारी करवाये। सम्राट अशोक ने ईरानी शासक दारा सेप्र भावित होकर भारतमें अभिलेख लिखवाना प्रारम्भ किया था भारत में सबसे पुराना अभिलेख अशोक मौर्य का है, जो प्राकृत मगधी भाषा में लिखा गया है और मुख्यतः ब्राह्मी लिपि में है। शक शासक रुद्रदामन का जूनागढ़ शिलालेख भारत में पहला संस्कृत शिलालेख है।
घोसुण्डी का लेख (चित्तौडगढ़) – द्वितीय शताब्दी ई.पूर्व का घोसुण्डी शिलालेख राजस्थान में नगरी (चित्तौड़) के निकट घोसुण्डी गाँव में ब्राह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया गया था। डॉ. डी.आर. भंडारकर द्वारा पढ़ा गया घोसुंडी शिलालेख वर्तमान में उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमे भगवान विष्णु की उपासना की जानकारी प्राप्त होती है। यह राजस्थान में वैष्णव (भागवत) संप्रदाय से संबंधित सबसे पुराना शिलालेख है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का है। इसकी भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है।
बड़ली गांव का शिलालेख (443 ईं.)
अजमेर जिले के बड़ली गांव में प्राप्त हुआ है यह अभिलेख गौरीशंकर हीराचंद ओझा को भिलोत माता के मंदिर में मिला था यह राजस्थान का सबसे प्राचीन अभिलेख है जो वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित है
चित्तौड़ का मानमोरी शिलालेख– मानमोरी शिलालेख मानसरोवर झील के निकट चित्तौड़ में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण करवाया गया था। मानमोरी शिलालेख 8वीं सदी का शिलालेख है। कर्नल जेम्स टॉड ने मानमोरी शिलालेख को इंग्लैंड ले जाते समय समुद्र में डुबो दिया था। केवल इस लेख का अनुवाद जेम्स टॉड के पास बचा रहा। जिसको उसने अपनी पुस्तक ‘ द एनाल्स एण्ड एन्टिक्वीटीज आँफ राजस्थान ‘ में प्रकाशित किया। मानमोरी शिलालेख के अनुसार भीम को अवन्तिपुर का राजा बताया है। मानमोरी शिलालेख के रचयिता पुष्य तथा उत्कीर्णकर्ता शिवादित्य का उल्लेख भी मानमोरी शिलालेख में मिलता है।
कणसवा का लेख – कोटा
- इस लेख में मौर्यशासक राजा धवल का उल्लेख मिलता है
नोट– उपयुक्त दोनों शिलालेखों (मानमौरी तथा कणसवा का लेख) से स्पष्ट है कि मौर्यों का संबंध राजस्थान से भी रहा है
चित्तौड़ का लेख (971) – 971 ई. का चित्तौड़ से प्राप्त इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि उस समय मेवाड़ क्षेत्र में महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित था।
चित्तौड़ का कुमारपाल का शिलालेख (1150 ईं.) – प्रस्तुत लेख कुमारपाल सोलंकी के समय का चित्तौड़ के समिधेश्वर के मंदिर में लगा हुआ है। चालुक्य वंश का यशोगान किया गया है । इसके अनन्तर मूलराज और सिद्धरांज का वर्णन आता है। कुमारपाल के वर्णन में इसमें शाकंभरी विजय का उल्लेख आता है। प्रशस्ति का रचयिता जयकीर्ति का शिष्य रामकीर्ति था। यह उस समय का दिगम्बर विद्वान था।
नांदसा यूप स्तम्भ लेख (225 ईं.)
नांदसा भीलवाडा से 36 मील की दूरी पर एक गाँव है जहाँ एक तड़ाग में एक गोल स्तम्भ है। यह वर्ष के अधिकांश भाग में पानी में डूबा रहता है, केवल गर्मीयों में तडाग का पानी सूखने पर ही इसे पढा जाता है।
सरणेश्वर (सांडनाथ) प्रशस्ति (953 ईं.)
यह उदयपुर के शमशान में स्थित सारणेश्वर महादेव के मंदिर में स्थित सभामंडप मे मिली थी। इस प्रशस्ति से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है। गोपीनाथ शर्मा की मान्यता है कि मूलतः यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड़ गाँव के किसी वराह मंदिर में लगी होगी। बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मंदिर के निर्माण के समय में सभा मंडप के छबने के काम में ले ली हो।
नगरी का लेख (200 – 150ईं पू.) – यह एक खंड लेख है जो मूल लेख का दाहिनी भाग है यह लेख डॉ ओझा को नगरी नामक स्थान पर प्राप्त हुआ था ।
अचलेश्वर लेख ( 1285 ईं. ) – यह लेख अचलेश्वर (आबू) के मंदिर के पास वाले मठ के एक चौपाल की दीवार में लगाया गया था । इसमें बापा से लेकर समरसिंह के काल की वंशावली दी गई है। इस प्रशस्ति का रचयिता प्रियपटु का पुत्र वेद शर्मा नागर था इसका लेखक शुभचन्द और उत्कीर्णकर्ता कर्मसिंह सूत्रधार था।
चित्तौड़ के जैन कीर्तिस्तम्भ के तीन लेख ( 13 वीं सदी ) – चित्तौड़ का जैन कीर्तिस्तम्भ 13 वीं सदी में जीजाक के द्वारा बनवाया गया था ।
माचेडी की बावली का लेख ( 1382 ईं.) – माचेडी ( अलवर) की बावली वाले शिलालेख में बड़ गुजर शब्द का प्रयोग पहली बार प्रयुक्त हुआ है। इस बावड़ी का निर्माण खंडेलवाल महाजन कुटुम्ब ने करवाया था।
समाधीश्वर मंदिर का शिलालेख ( 1428 ईं॰ ) – यह लेख चित्तौड़ के समाधीश्वर मंदिर के सभामण्डप की पूर्वी दीवार में संगमूसा पत्थर पर 53 पंक्तियों में उत्कीर्ण है।
लूणवसही ( आबू-देलवाड़ा ) की प्रशस्ति ( 1230 ईं. ) – यह प्रशस्ति पोरवाड़ जातीय शाह वस्तुपाल तेजपाल द्वारा बनवाये हुए आबू के देलवाड़ा गांव के लूणवशाही के मंदिर की संवत् 1287 फाल्गुन कृष्णा 3 रविवार की है । इसकी भाषा संस्कृत है और इसे गद्य में लिखा गया है । इसमें आबू के परमार शासकों तथा वस्तुपाल तेजपाल के वंश का वर्णन है ।
नेमिनाथ ( आबू ) के मंदिर की प्रशस्ति ( 1230 ईं॰ ) – यह प्रशस्ति वि.सं. 1287 श्रावण कृष्णा 3 रविवार की है जिसमें 74 श्लोक हैं । इसको तेजपाल के द्वारा बनवाये गये आबू पर देलवाडा गाँव के नेमिनाथ के मंदिर में लगाई गई थी ।
चितौड़ का लेखा (1266 ईं. ) – यह लेख चित्तौड़ से प्राप्त हुआ है जो तेजसिंह के समय का है । इस लेख में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसके द्वारा हमें तेजसिंह के महामात्य समुद्धर की सूचना मिलती हैं।
गंभीरी नदी के पुल का लेख ( 1267 ईं. ) – चित्तौड़ के निकट वाली गंभीरी नदी का पुल ऐसा मालूम होता है कि चित्तौड़ के आस-पास के कई भवनों और मंदिरों के अवशेषों से, जो तुर्की आक्रमण के कारण नष्ट हो गये थे। खिज्र खाँ ने बनवाया था।
बीठू का लेख ( 1273 ईं. ) – पाली से चौदह मील उत्तर-पश्चिम में बीठू गाँव के पास वि.सं. 1330 (ई.सं. 1273, ता. 9 अक्टूबर) सोमवार का लेख प्राप्त हुआ है, इससे प्रमाणित होता है कि सीहा सैतकुँवर का पुत्र था और वह उक्त तिथि को देवलोक सिधारा।
अशोक का भब्रुलेख – जयपुर के निकट बैराठ से प्राप्त इस लेख में अशोक द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की पुष्टी होती है। वर्तमान में यह लेख कोलकत्ता म्युजियम में है। अशोक का यह लेख पाली भाषा व ब्राहणी लीपी में है। कनिघम इस शिलालेख को अध्ययन के लिए कोलकत्ता ले गये थे।
बिजोलिया का शिलालेख –
बिजौलिया शिलालेख का रचयिता गुणभद्र था।
उत्कीर्णकर्ता– गोविन्द
भाषा-संस्कृत 1170 ई. का यह शिलालेख भीलवाडा से जिला के पठारी भाग से प्राप्त इस लेख से शाकम्भरी के चैहान वंश के बारे मे प्राप्त होता है। बिजौलिया शिलालेख जैन (दिगम्बर) श्रावक लोलाक के द्वारा मंदिर के निर्माण की स्मृति में बनवाया गया था। इस लेख के अनुसार चैहानों की उत्पत्ति वत्स गोत्रिय बा्रहमणों से बताई गयी है।
बिजौलिया शिलालेख में वासुदेव चौहान को चौहान वंश का संस्थापक बताया गया है। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार वासुदेव चौहान ने सांभर झील का निर्माण करवाया तथा अहिछत्रपुर (नागौर) को अपनी राजधानी बनाया था।
Note – सांभर झील में मेन्था(मेढा), रूपनगढ़, खारी तथा खण्डेला नदियों का पानी आता है
बिजौलिया शिलालेख में कुछ क्षेत्रों के प्राचीन नाम भी दिए गये है जैसे
प्राचीन नाम | वर्तमान नाम |
जाबालिपुर | जालौर |
नड्डुल | नाडोल |
शाकम्भरी | सांभर |
दिल्लीका | दिल्ली |
श्रीमाल | भीनमाल |
मंडलकर | मांडलगढ़ |
विंध्यवल्ली | बिजौलिया |
नागह्रद | नागदा |
विशेष तथ्य
- बिजोलिया ठिकाने की स्थापना अशोक परमार ने की थी
- अशोक परमार को बिजोलिया की जागीर राणासांगा ने प्रदान की थी
चीरवा का शिलालेख(1273) – रचयिता- रत्नप्रभुसूरी + पार्श्वचन्द्र, उत्कीर्णकर्त्ता– देल्हण
चीरवा का शिलालेख 1273 ई. में राजस्थान के उदयपुर जिले के चीरवा गाँव के एक मंदिर के बाहरी द्वार पर उत्कीर्ण करवाया गया था। भाषा संस्कुत 1273 ई. (13 वीं सदी) मेवाड़ (उदयपुर) से प्राप्त इस शिलालेख से गुहिल वंश की जानकारी प्राप्त होती है।
चीरवे शिलालेख में संस्कृत में 51 श्लोकों का वर्णन मिलता है। चीरवे शिलालेख में गुहिल वंशीय, बप्पा, पद्मसिंह, जैत्रसिंह, तेजसिहं और समर सिंह का वर्णन मिलता है। चीरवे शिलालेख में चीरवा गांव की स्थिति, विष्णु मंदिर की स्थापना, शिव मंदिर के लिए खेतों का अनुदान आदि विषयों का समावेश है। इस लेख में मेवाड़ी गोचर भूमि, सती प्रथा, शैव धर्म आदि पर प्रकाश पड़ता है।
श्रृंगीऋषी का शिलालेख – 1428 ई. मेवाड़ (15 वी. सदी) क्षेत्र से प्राप्त इस लेख से गुहिल वंश की जानकारी के साथ-साथ राजस्थान की प्राचीन जनजाती भील जनजाती के सामाजिक जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है।
आमेर का शिलालेख – (1612 ई.) मानसिंह प्रथम के इस लेख से निम्न लिखित जानकारी प्राप्त होती है।
- कुशवाह वंश की जानकारी
- मानसिंह द्वारा आमेर क्षेत्र जमवारामगढ़ दुर्ग बनवाये जाने का उल्लेख
- इस लेख में कुशवाहा वंश को रघुवंश तिलक कहा गया है।
- कुशवाह वंश की उत्पत्ति श्रीराम के बडे़ पुत्र कुश से मानी जाती है।
सांमोली शिलालेख (646 ईं.) – यह लेख सांमोली गाँव से, जो मेवाड़ के दक्षिण में भोमट तहसील में स्थित है। यह लेख मेवाड के गुहिल राजा शीलादित्य के समय का है।
अपराजित का शिलालेख ( 661 ईं.) – यह लेख नागदे गाँव के निकटवर्ती कुंडेश्वर के मंदिर में डॉ॰ ओझा को मिला । इस लेख से गुहिल शासकों की उत्तरोत्तर विजर्यों का बोध होता है।
शंकरघट्टा का लेख ( 713 ईं ) – इस लेख में 17 पंक्तिया हैं। इसके प्रारम्भ में शिव की वंदना की गई है। प्रस्तुत लेख का भाग, जहाँ से राजा मानभंग का वर्णन मिलता है सम्भवत यह मानभंग वही मानमोरी है जिसके शिलालेख का जिक्र कर्नल टॉड ने किया है
बरबथ का शिलालेख – बयाना, भरतपुर
इस शिलालेख में मुग़ल– राजपूत वैवाहिक सम्बंधों की जानकारी मिलती है
Note-
- राजपुताना का पहला राजपूत शासक जिसने मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, राजा भारमल था
- कच्छवाहा वंशीय शासक राजा भारमल ने 1562 ई. में सांभर में अपनी पुत्री का विवाह सम्राट अकबर के साथ किया
बुचकला शिलालेख ( 815 ईं ) – इस लेख की खोज ब्रह्मभट्ट नानूराम ने बिलाडा ( जिला जोधपुर ) के निकट बुचकला के पार्वती के मंदिर वाले सभा मण्डप से की थी। यह लेख वत्सराज के पुत्र नागभट्ट प्रतिहार के समय का है।
बसंतगढ़ शिलालेख – सिरोही, 682 वि.सं.
- राजस्थानादित्या शब्द का उल्लेख
- यह शिलालेख चावड़ा वंश के शासक वर्मलोत का है
हीराबाडी (जोधपुर) का लेख ( 1540 ई. ) – यह लेख राव मालदेव के समय का है। ऐसी प्रसिद्धि है कि जब रावजी की सेना ने नागौर विजय के उपरान्त इधर-उधर गाँवों को लूटना आरम्भ किया, इस समय सेनापति जेता का मुकाम हीरावाडी नामक स्थान पर था। उसके प्रभाव के कारण वहाँ शान्ति बनी रही।
राजप्रशस्ति – 1676 ई.
मेवाड़ के राणा राजसिंह ने राजसमंद झील बनवाई। जिसका उत्तरी भाग “नौ चौकी” कहलाता है। यही पर पच्चीस काले संगमरमर की शिलाओं पर मेवाड का सम्पूर्ण इतिहास उत्कीर्ण है। जिसे राजप्रशस्ति कहा जाता है। यह संसार की सबसे बडी प्रशस्ति/लेख है। इसके सूत्रधार रणछोड़ भट्ट तैलंग है। जिन्हे अमरकाव्य वंशावली की रचना की।
- मेवाड़– मुग़ल संधि का उल्लेख
- मेवाड़ मुग़ल संधि 5 फरवरी 1615 को हुई थी
- एशिया की सबसे बड़ी प्रशस्ति
- भाषा– संस्कृत
विशेष तथ्य– राजस्थान की प्रसिद्ध लोकदेवी घेवरमाता का मंदिर इसी झील के तट पर है
कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति – चितौड़गढ़, 1460 ई.
रचयिता– अत्रि / महेश
इस प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा की उपलब्धियों का उल्लेख है
इसमें महाराणा कुम्भा के लिए निम्न संबोधनों का प्रयोग किया गया है
- अभिनव भरताचार्य– संगीत ज्ञान के कारण (वीणा)
- दान गुरु
- परम गुरु
- हिन्दूसुरतान– तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ हिन्दूराजा
- हाल गुरु – पहाड़ी दुर्गों का निर्माता
- राणा रासो – साहित्यकारों का आश्रयदाता
इस प्रशस्ति में महाराणा सांगा द्वारा रचित ग्रंथों का भी उल्लेख किया गया है
- संगीत राज
- संगीत मीमांसा
- सूड़ प्रबंध
- सुधा प्रबंध
- कामराज रतिसार
- नृत्य रत्नकोष
- हरिवर्तिका
- रसिक प्रिया(गीत गोविन्द का टीका)
वैद्यनाथ प्रशस्ति –
- यह प्रशस्ति पिछोला झील पर स्थित है
- रचयिता– रूपभट्ट
- इस प्रशस्ति में मेवाड़ के सिसोदिया शासक संग्राम सिंह – II ने लगवाया
- इस प्रशस्ति के अनुसार बप्पा रावल को राज्य की प्राप्ति हारित ऋषि के आशीर्वाद से हुई
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति
- रचयिता– कवि महेश
- इस प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है
- इस प्रशस्ति में बप्पारावल को विप्रवंशीय बताया गया है
जगन्नाथ राय प्रशस्ति – उदयपुर, 1652 ई.
- रचयिता– कृष्णभट्ट
- इस प्रशस्ति में हल्दीघाटी के युद्ध की जानकारी मिलती है
रणकपुर प्रशस्ति – पाली, 1339 ई.
- प्रमुख शिल्पी– देपा
- इस प्रशस्ति में बप्पा रावल और काल भोज कोअलग–अलग व्यक्ति बताया गया है
- इन मंदिरों का निर्माण महाराणा कुंभा के शासन काल में धरणकशाह ने करवाया
- रणकपुर जैन मंदिर मथाई नदी के तट पर स्थित है
नोट– रणकपुर स्थल जैन मंदिरों के लिए जाना जाता है
रायसिंह प्रशस्ति – जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर), 1594 ई.
- रचयिता– जैता
- इस प्रशस्ति में राव बीका से लेकर रायसिंह राठौड़ तक की जानकारी मिलती है
फारसी क शिलालेख
ढाई दिन का झोपडा का लेख – अजमेर में कुतुबुद्दीन ऐबक ने ढाई दिन का झोपडा बनवाया । इस पर फारसी भाषा में इसके निर्माताओं के नाम लिखे है। यह भारत का सर्वाधिक प्राचीन फारसी लेख है।
धाई-बी-पीर की दरगाह का लेख– 1303 ई. चित्तौड़ से प्राप्त फारसी लेख से ज्ञात होता है कि 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड पर अधिकार कर उसका नाम अपने बडें पुत्र खिज्र खां के नाम पर खिज्राबाद कर दिया।
श्शाहबाद का लेख (बांरा) -1679 (17 वीं सदी) बांरा जिले से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है कि मुगल शासक औरंगजेब ने इस ई. में गैर मुस्लिम जनता पर जजिया कर लगा दिया औंरगजेब की कर नीति की जानकारी भी प्राप्त होती है।
ताम्रपत्र (Copper Plates)
(खेरोदा का ताम्रपत्र) 15 वीं सदी के इस ताम्रपत्र से ही राणा कुम्भा द्वारा किए गए प्रायश्चित का वर्णन है। साथ ही मेवाड़ की धार्मिक स्थित की जानकारी भी प्राप्त होती है। ताम्र-पत्र की पूरी पोस्ट पढ़ें।
पुरालेखागारिय स्त्रोत
- हकीकत बही- राजा की दिनचर्या का उल्लेख
- हुकूमत बही – राजा के आदेशों की नकल
- कमठाना बही – भवन व दुर्ग निर्माण संबंधी जानकारी
- खरीता बही – पत्राचारों का वर्णन
- राज्य अभिलेखागार बीकानेर में उपर्युक्त बहियां सग्रहीत है।
- राष्ट्रीय पुरालेख विभाग -दिल्ली
- कमठा लाग (TAX) भी है।
राजस्थानी साहित्यिक स्त्रोत
राजस्थानी साहित्य :– राजस्थानी साहित्यों में इतिहास से संबंधित कृतियाँ गद्य एवं पद्य दोनों में लिखी गईं। ऐतिहासिक गद्य कृतियों में ख्यात, बात, विगत, वंशावली, हाल, हकीकत, बही आदि प्रमुख हैं। राजस्थानी पद्य कृतियों में रासो, विलास, रूपक, प्रकाश, वचनिका, वेलि, झमाल, झूलणा, दुहा, छंद आदि शामिल हैं।
राजस्थानी साहित्य | साहित्यकार |
बीसलदेव रांसो | नरपति नाल्ह |
पृथ्वीराजरासो | चन्दबरदाई |
हम्मीर रासो | जोधराज/ शारगंधर |
संगत रासो | गिरधर आंसिया |
बेलिकृष्ण रूकमणीरी | पृथ्वीराज राठौड़ |
अचलदास खीची री वचनिका | शिवदास गाडण |
पातल और पीथल | कन्हैया लाल सेठिया |
कान्हड़ दे प्रबन्ध | पदमनाभ |
धरती धोरा री | कन्हैया लाल सेठिया |
लीलटास | कन्हैया लाल सेठिया |
रूठीराणी, चेतावणी रा चूंगठिया | केसरीसिंह बारहठ |
राजस्थानी कहांवता | मुरलीधर ब्यास |
राजस्थानी शब्दकोष | सीताराम लालस |
मारवाड रे परगाना री विगत | मुहणौत नैणसी |
नैणसी री ख्यात | मुहणौत नैणसी |
संस्कृत साहित्य
हम्मीर महाकाव्य | नयन चन्द्र सूरी |
पृथ्वीराज विजय | जयानक (कश्मीरी) |
हम्मीर मदमर्दन | जयसिंह सूरी |
वंश भासकर/छंद मयूख | सूर्यमल्ल मिश्रण (बूंदी) |
नृत्यरत्नकोष | राणा कुंभा |
कुवलयमाला | उद्योतन सूरी |
भाषा भूषण | जसवंत सिंह |
ललित विग्रराज | कवि सोमदेव |
एक लिंग महात्मय | कान्ह जी ब्यास |
फारसी साहित्यः
मिम्ता-उल-फुतूह | अमीर खुसरो |
खजाइन-उल-फुतूह | अमीर खुसरों |
चचनामा | अली अहमद |
तुजुके बाबरी (तुर्की) बाबरनामा | बाबर |
वाकीया-ए- राजपूताना | मुंशी ज्वाला सहाय |
हुमायूनामा | गुलबदन बेगम |
अकनामा/आइने अकबरी | अबुल फजल |
तुजुके जहांगीरी | जहांगीर |
तारीख -ए-राजस्थान | कालीराम कायस्थ |
राजस्थान अभिलेख महत्वपूर्ण तथ्य (Important Facts)
- कर्णसंवा के शिलालेख से एक मौर्य वंश के शासक राजा धवल का उल्लेख मिलता है, इस शिलालेख के अलावा अन्य किसी भी शिलालेख में यह जानकारी नहीं मिलती है, यह शिलालेख कोटा के पास कारणवश कर्ण संवा नामक गांव से मिला था
- उदयपुर के एकलिंगजी मंदिर से प्राप्त नाथ प्रशस्ति में पशुपति संप्रदाय की जानकारी मिलती है, पशुपति संप्रदाय के संस्थापक लकुलीश थे।
- बैराठ (जयपुर )से प्राप्त भाब्रू के शिलालेख में मौर्य शासक सम्राट अशोक की जानकारी मिलती है, इसमें अशोक को बौद्ध होना बताया गया है।
- अचलेश्वर का लेख व तेज मंदिर लेख से राजपूतों को चन्द्रमावंसी बताया गया है, अचलेश्वर शिलालेख में बप्पा रावल से समर सिंह के इतिहास की जानकारी मिलती है
- चीरवा का लेख चिरवा घाटी के समीप चीरवा गांव से प्राप्त हुआ है, वर्तमान में उदयपुर में स्थित है, बप्पा रावल से समर सिंह तक का वर्णन ग्रामीण व्यवस्था एवं सती प्रथा का वर्णन
- खजूरी गांव के अभिलेख में बूंदी का नाम वृंदावंती मिलता है बूंदी के हाडा शासकों की जानकारी मिलती है
- राणा कुंभा की पुत्री रमाबाई को जावर के शिलालेख में वागीश्वरी कहा गया है, क्योंकि रमाबाई एक विदुषी महिला थी, यह शिलालेख उदयपुर के समीप जावर नामक स्थान से मिला है , जावर का प्राचीन नाम जोगिनी पटनम था
- बरनाला का अभिलेख जयपुर से प्राप्त हुआ 227 ई भाषा संस्कृत में वर्तमान में आमेर के संग्रहालय में संग्रहित है
- घटियाला के शिलालेख जोधपुर के समीप गडियाला गांव से मिलता है; प्रतिहार राजा कुक्कुट राजा को न्यायप्रियता वीरता राजनीतिक स्थिति का वर्णन इस शिलालेख में भवन बाजार का सुव्यवस्थित निर्माण एवं सिक्कों की जानकारी
- इस लेख में नागभट्ट शासक को एक प्रतापी शासक बताया गया है गुर्जर प्रतिहारों की उपलब्धियों का वर्णन
- सिरोही के बसंतगढ़ शिलालेख में सर्वप्रथम राजस्थान को राजस्थानी आदित्य के नाम से उल्लेखित किया गया है