घुड़ला त्यौहार कब और क्यों मनाया जाता है?

मारवाड़ के जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर आदि जिलों में यह त्यौहार मनाया जाता है। घुड़ला एक छिद्रित घड़ा होता है जिसमें दीपक जला कर रखा होता है। बालिकाएं समूह में कुम्हार के यहां जाकर घुड़ला और चिड़कली लाती हैं फिर इसमें कील से छोटे-छोटे छिद्र कर इसमें दीपक जला कर रखती है।

घुड़ला  त्यौहार कब मनाया जाता है?

मारवाड़ के जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर आदि जिलों में चैत्र कृष्ण अष्टमी (शीतला अष्टमी) से चैत्र शुक्ला तृतीया तक यह त्यौहार मनाया जाता है।

घुड़ला एक छिद्रित घड़ा होता है जिसमें दीपक जला कर रखा होता है। इस घुड़ले को सर पर रखकर घुड़ला व गवर के मंगल लोकगीत गाती हुई सुख व समृद्धि की कामना से गाँव या शहर की गलियों में इसे घुमाती है। जहाँ से घुड़ला गुजरता है वहां महिलाएं माटी के घुड़ले के अंदर जल रहे दीपक के दर्शन करके सभी कष्टों को दूर करने तथा घर में सुख शांति बनाए रखने की मंगल कामना व प्रार्थना करते हुए घुड़ले पर चढ़ावा चढ़ाती हैं।

घुड़ला घुमाने वाली महिलाओं को तीजणियां कहा जाता है।

घुड़ला घुमाने का सिलसिला शीतला अष्टमी से चैत्र नवरात्रि के तीज पर आने वाली गणगौर तक चलता है। इस दिन गवर को घुइले के साथ विदाई दी जाती है उसे पानी में विसर्जित कर दिया जाता है। इस त्यौहार से सम्बंधित एक राजस्थानी लोकनृत्य घुड़ला भी विख्यात है।

घुड़ले रे बांध्यो सूत, घुड़लो घूमैला जी घूमैला।

सवागण बारै आग, घुड़लो घूमैला जी घूमैला।

घुड़ला त्यौहार क्यों मनाया जाता है?

ये घटना सन् 1490 के दशक की है जब जोधपुर में राव सातल सिंह का शासन था, उस समय मुगलों से युद्ध चलते रहते थे।

एक बार अजमेर के सूबेदार मल्लू खां ने अपने सहायकों सिरिया खां और घुड़ले खां के साथ मेड़ता पर आक्रमण किया। मार्ग में उसने पीपाड़ गाँव के पास कोसाणा गांव के तालाब पर सुहागिन स्त्रियों को गणगौर की पूजा करते हुए देखा। मल्लूखाँ ने उन सुहागिनों को पकड़ लिया तथा उन्हें लेकर अजमेर के लिए रवाना हो गया।

जब यह समाचार राव सातल के पास पहुँचा तो राव सातल ने अपनी सेना लेकर मल्लू खाँ का पीछा किया। मेड़ता से दूदा तथा लाडनूं से बीदा की सेनाएं भी मल्लूखां को रोकने के लिए चल पड़ीं। मल्लूखां पीपाड़ से कोसाणा तक ही पहुँचा था कि जोधपुर नरेश सातल ने उसे जा घेरा। मल्लूखां और उसके साथी भाग छूटे किंतु मल्लूखां का सेनापति घुड़ले खां इस युद्ध में मारा गया। हिन्दू कन्याएं एवं सुहागिन स्त्रियां मुक्त करवा ली गयीं।

सातल के सेनापति खीची सारंगजी ने घुड़ला खां का सिर काटकर राव सातल को प्रस्तुत किया। राव सातल ने घुड़लाखां का कटा हुआ सिर उन स्त्रियों को दे दिया जिन्हें मल्लू खां उठाकर ले जाना चाहता था। स्त्रियां उस कटे हुए सिर को लेकर गांव में घूमीं और उन्होंने राजा के प्रति आभार व्यक्त किया। महाराजा के आदेश से उस सिर को सारंगवास गांव में गाड़ा गया। जिसके कारण वह गांव आज भी घड़ाय कहलाता है।

इस घटना की स्मृति में आज भी चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को घुड़ला निकाला जाता है। इस अवसर पर गाँव-गाँव में मेला लगता है।

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