सांसी जनजाति (Sansi Janjati): साँसी जनजाति की उत्पत्ति सांसमल नामक व्यक्ति से मानी जाती है। जो मूलत: भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र राजपूताना में केंद्रित रही, लेकिन 13वीं शताब्दी में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा खदेड़ दी गई। अब यह जनजाति मुख्यत: राजस्थान में संकेंद्रित है सांसी जनजाति अधिकांशत: राजस्थान के भरतपुर ज़िले में निवास करती है। इसके अलावा झुंझुनूं जिले के कुछ भागों में पाई जाती हैं।
Sansi Janjati Rajasthan
साँसी जनजाति एक खानाबदोश जीवन यापन करने वाली जनजाति है। जीवन यापन के लिए पशुओं की चोरी तथा अन्य छोटे-छोटे अपराधों पर निर्भर रहने वाली साँसी जनजाति का उल्लेख अपराधी जनजाति क़ानूनों 1871, 1911 और 1924 में किया गया है, जिनमें उनके ख़ानाबदोश जीवन को ग़ैर क़ानूनी कहा गया।
सांसी जनजाती के दो उपभाग हैं।
- बीजा – धनाढ्य वर्ग
- माला – गरीब वर्ग
सामाजिक जीवन
- इनमें विधवा विवाह का प्रचलन नहीं हैं।
- ये लोग बहिर्विवाही होते हैं अर्थात् एक विवाह में ही विश्वास रखते हैं।
- ये लोग नीम, पीपल, बरगद आदि वृक्षों की पूजा करते हैं।
- यह जनजाति लोमड़ी एवं साँड का माँस खाना अत्यधिक पसन्द करती हैं।
- यह जनजाति अपने आपसी झगड़ों के निपटारे के लिए हरिजन जाति के व्यक्ति को मुखिया बनाती हैं।
मुख्य देवता
- सांसी जनजाति भाखर बावजी को अपना संरक्षक देवता मानती है।
प्रचलित प्रमुख प्रथाएँ
- सांसी जनजाति में नारियल की गिरी के गोले के लेन-देन से सगाई की रस्म पूरी होती है।
- इस जनजाति के विवाह में तोरण या चंवरी नहीं बनाई जाती है बल्कि केवल लकड़ी का खम्भा गाड़ कर वर-वधू उसके सात फेरे लेते हैं।
- कूकड़ी रस्म :- सांसी जनजाति में प्रचलित रस्म जिसमें लड़की को विवाहोपरांत अपने चरित्र की परीक्षा देनी होती है।
अर्थव्यवस्था
- सांसी जनजाति के लोग चोरी को विद्या मानते हैं।
- ये लोग घुमक्कड़ होते हैं तथा इनका कोई स्थायी व्यवसाय नहीं होता हैं। यह हस्तशिल्प व कुटीर उद्योगों में संलग्न हैं।
प्रमुख त्यौहार :- होली एवं दीपावली।
मेला
- पीर बल्लू शाह का मेला संगरिया में जून माह में आयोजित होता है।