राजस्थान में वन सम्पदा (Rajasthan van Sampada)

राजस्थान में वन सम्पदा (Rajasthan van Sampada):भू क्षेत्र जहाँ वृक्षों का घनत्व सामान्य से अधिक है उसे वन (जंगल) कहते हैं। अंग्रेजी शासन से पहले भारत में जनता द्वारा जंगलों का इस्तेमाल मुख्यतः स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार होता था। भारत में सबसे पहले लार्ड डलहौजी ने 1855 में एक वन नीति घोषित की, जिसके तहत राज्य के वन क्षेत्र में जो भी इमारती लकड़ी के पेड़ हैं वे सरकार के हैं और उन पर किसी व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं है।

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राजस्थान, भारत के भौगोलिक क्षेत्र के अनुसार, आरक्षित वन क्षेत्र में 15वां स्थान रखता है , वन अभाव वाला राज्य है। राज्य में अभिलिखित वन क्षेत्र 32,737 वर्ग कि.मी. है जिसका 12,475 वर्ग कि.मी. आरक्षित तथा 18,217 वर्ग कि.मी. संरक्षित वन तथा 2,045 वर्ग कि.मी. अवर्गीकृत वन है।

राजस्थान में पांच राष्ट्रीय उद्यान, 25 वन्यजीव अभ्यारण्य एवं 11 संरक्षण रिजर्व, संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क बनाते हैं जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 2.92% है। राज्य में 4 बाघ परियोजना (रणथंभौर, सरिस्का, मुकुंद्रा हिल और रामगढ़ विषधारी ) और दो रामसर (केलोदेव घाना सेंचुरी और सांबर झील) है।

राजस्थान में वन नीति

  • भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति वर्ष 1894 में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित की गई थी।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार द्वारा पहली वन नीति 1952 में बनाई गई। इस वन नीति को 1988 में संशोधित किया गया। इस नीति के अनुसार राज्य के 33% भूभाग पर वन होना अनिवार्य है।
  • संविधान के 42वें संशोधन 1976 के द्वारा वनों का विषय राज्यसूची से समवर्ती सूची में लाया गया।
  • स्वतंत्रता के पश्चात् राजस्थान वन अधिनियम 1953 में पारित किया गया।
  • राजस्थान में सर्वप्रथम 1910 में जोधपुर रियासत ने, 1935 में अलवर रियासत ने वन संरक्षण नीति बनाई।
  • राज्य में 1949-50 में वन विभाग की स्थापना की गई। इसका मुख्यालय जयपुर में है।
  • 4 मार्च, 2014 से राजस्थान वन (संशोधन) अधिनियम, 2014 लागू किया गया।
  • राजस्थान सरकार द्वारा 8 फरवरी 2010 में अपनी पहली राज्य वन नीति घोषित की गई है । साथ ही राजस्थान वन पर्यावरण निति घोषित करने वाला देश का पहला राज्य हो गया!
भारतीय वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत 1981 में केन्द्रीय वन अनुसंधान संस्थान देहरादून की स्थापना की गई। इसके चार क्षेत्रीय कार्यालय हैं – शिमला, कोलकाता, नागपुर एवं बंगलौर।  
राजस्थान में वन का वर्गीकरण – ISFR 2019

भारतीय वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून की फॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया, स्टेट ऑफ़ फ़ॉरेस्ट रिपोर्ट 2019, (ISFR 2019) के अनुसार, राजस्थान में लगभग 32,737 वर्ग किलोमीटर का वन क्षेत्र दर्ज किया गया है। यह वन क्षेत्र राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 9.57% और भारत का वन क्षेत्र लगभग 4.28% है। कानूनी स्थिति के आधार पर, सरकार ने इस वन क्षेत्र को तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया है:

  • आरक्षित वन – 12,475 वर्ग किलोमीटर
  • सुरक्षित वन / रक्षित वन – 18,217 वर्ग किलोमीटर
  • अवर्गीकृत वन – 2,045 वर्ग किलोमीटर

आरक्षित वन (Reserved Forest)

  • आरक्षित वनो का क्षेत्रफल 12,475 वर्ग किलोमीटर है जो कुल वनों का 38.11 प्रतिशत है। इन वनों पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होता है। इनमें किसी भी प्रकार का दोहन वर्जित है। सर्वाधिक आरक्षित वन उदयपुर जिले में है।

सुरक्षित वन (Protected Forest)

  • सुरक्षित वनो का क्षेत्रफल 18,217 वर्ग किलोमीटर है जो की कुल वनों का 55.64 प्रतिशत है। इन वनों के दोहन के लिए सरकार कुछ नियमों के आधार पर छुट देती है। इनमें लकड़ी काटने, पशुचारण की सीमित सुविधा दी जाती है तथा इनको संरक्षित रखने का भी प्रयत्न किया जाता है।सर्वाधिक रक्षित वन बारां जिले में है।

अवर्गीकृत वन (Unclassified Forest)

  • राजस्थान में 2045 वर्ग किलोमीटर या 6.25 प्रतिशत क्षेत्र में अवर्गीकृत वन हैं। इन वनो में पेड़ों के कटने और मवेशियों के चरने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इन वनों में सरकार द्वारा निर्धारित शुल्क जमा करवाकर वन सम्पदा का दोहन किया जा सकता है। सर्वाधिक अवर्गीकृत वन बीकानेर जिले में है।

वन रिपोर्ट 2019 के अनुसार राजस्थान में कुल वनावरण 16629.51 वर्ग किमी है, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 4.86% है। (16630 वर्ग किमी)

वनावरण में वर्ष 2017 की तुलना में 57.51 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है।

वन रिपोर्ट 2019 के अनुसार राजस्थान में कुल वृक्षावरण 8112 वर्ग किमी है, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 2.36% है। वृक्षावरण में वर्ष 2017 की तुलना में 154 वर्ग किमी की कमी हुई है।

राजस्थान में कुल वनावरण एवं वृक्षावरण 24742 वर्ग किमी है, जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 7.22% है।

वनावरण और वृक्षावरण
वनावरण – वह सभी भूमि जिसका क्षेत्रफल 1 हेक्टेयर से अधिक हो और वृक्ष घनत्व 10 % से अधिक हो वनावरण कहलाता है।
वृक्षावरण – अभिलिखित वन क्षेत्र के बाहर 1 हेक्टर क्षेत्रफल से कम वाले वृक्ष क्षेत्रों (वनावरण के अतरिक्त ) को इसमें शामिल किया जाता है।  

राजस्थान के 16 जिलों के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है तथा 13 जिलों के वन क्षेत्र में कमी हुई है।

जबकि 4 जिलों (करौली, चूरू, दौसा, धौलपुर) में स्थिरता देखी गई।

राजस्थान के 16 जिलों के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है तथा 13 जिलों के वन क्षेत्र में कमी हुई है।

जबकि 4 जिलों (करौली, चूरू, दौसा, धौलपुर) में स्थिरता देखी गई।

वृक्षों के वितान के आधार पर

ISFR 2019 – राजस्थान वन रिपोर्ट 2019 में राजस्थान में वनो का वर्गीकरण, वृक्षों के वितान के आधार पर निम्न प्रकार से किया गया हैं | –

वृक्षों के वितान के आधार पर-https://myrpsc.in

भारत में सबसे ज्यादा वन मध्यप्रदेश और सबसे कम हरियाणा में हैं।

अभिलेखित वन क्षेत्र के अनुसार राजस्थान का देश में 25वां स्थान है।

राज्य में सर्वाधिक वन उदयपुर में है।

राज्य में न्यूनतम वन चुरू में है तथा इसके बाद हनुमानगढ़ है।

राज्य के कुल वन क्षेत्र में सर्वाधिक एवं न्यूनतम वन क्षेत्र वाले जिले –

सर्वाधिक वन क्षेत्र

  • उदयपुर जिला – 2757.54 वर्ग किमी
  • अलवर जिला – 1196.66 वर्ग किमी
  • प्रतापगढ़ जिला – 1037.91 वर्ग किमी

न्यूनतम वन क्षेत्र

  • चूरू जिला – 82 वर्ग किमी
  • हनुमानगढ़ जिला – 89.96 वर्ग किमी
  • जोधपुर जिला – 107.78 वर्ग किमी

जिलों के भौगोलिक क्षेत्रफल के प्रतिशत के अनुसार सर्वाधिक एवं न्यूनतम वन क्षेत्र वाले जिले –

सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले जिले

  • उदयपुर जिला – 23.51%
  • प्रतापगढ़ जिला – 23.33%
  • सिरोही जिला –  17.76%          

न्यूनतम वन क्षेत्र

  • जोधपुर जिला – 0.47%
  • चूरु जिला – 0.59%
  • नागौर जिला – 0.83%

वन स्थिति रिपोर्ट 2017 की तुलना में वनावरण क्षेत्र में सर्वाधिक वृद्धि एवं सर्वाधिक कमी वाले जिले –

सर्वाधिक वृद्धि वाले जिले

  • बाड़मेर जिला – 16.79 वर्ग किमी
  • जैसलमेर जिला – 16.79 वर्ग किमी
  • डूंगरपुर जिला  – 11.30 वर्ग किमी

सर्वाधिक कमी वाले जिले

  • उदयपुर जिला – 6.46 वर्ग किमी
  • प्रतापगढ़ जिला – 6.09 वर्ग किमी
  • झालावाड़ जिला – 3.42 वर्ग किमी

वनों के प्रकार

उष्ण कटिबंधीय शुष्क पतझड़ वाले वन

इस प्रकार के वन अरावली पर्वत श्रेणी के उत्तरी और पूर्वी ढालों पर विशेषकर विस्तृत है।इसके अतिरिक्त दक्षिणी एवं दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में भी इन वनों का विस्तार है। इन वनों में धोकड़ा, गूलर, आम, बरगद, पलाश, बांस, आंवला, ओक, थोर, कैर, सेमल आदि मिलते हैं। विभिन्न प्रकार के वृक्षों की विविधता के कारण इन वनों के कई उप प्रकार है : –

शुष्क सागवान वन (Dry Teak Forests)

  • ये वन 250 – 450 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में विस्तृत है ।
  • इन वनों का विस्तार मुख्य रूप से उदयपुर ,डूंगरपुर,बांसवाड़ा ,झालावाड़ ,चितौड़गढ़ व बारां जिलों में है।तथा बांसवाड़ा में सर्वाधिक है।
  • सागवान के अलावा यहाँ तेंदू ,धावड़ा ,गुरजन ,गोंदल ,सिरिस ,हल्दू ,खैर ,सेमल ,रीठा ,बहेड़ा व इमली के वृक्ष भी पाए जाते है ।
  • सागवान अधिक सर्दी व पाला सहन नहीं कर पाता है अतः इन वृक्षों का विस्तार दक्षिणी क्षेत्रों में अधिक है ।
  • सागवान की लकड़ी कृषि औजारों व इमारती कार्यो के लिए बहुत ही उपयोगी है ।

सालर वन

  • इन वनो का विस्तार 450 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में है ।
  • राज्य में ये वन उदयपुर ,राजसमन्द ,चितौड़गढ़ ,सिरोही ,पाली ,अजमेर ,जयपुर ,अलवर व सीकर जिलों में विस्तृत है ।
  • इन वनों के प्रमुख वृक्ष सालर ,धोक ,कठिरा व धावड़ है ।
  • सालर वृक्ष गोंद का अच्छा स्त्रोत है । इसकी लकड़ी का उपयोग पैकिंग के डिब्बे बनाने में किया जाता है ।

धोकड़ा के वन

  • राज्य के मरुस्थलीय क्षेत्र को अतिरिक्त सभी क्षेत्र इनके लिए अनुकूल है । अतः राज्य में इन वनों का विस्तार सर्वाधिक है ।
  • इनका विस्तार 240 से 760 मीटर की ऊंचाई पर अधिक है ।
  • राज्य के कोटा , बूंदी , सवाई माधोपुर , जयपुर , अलवर , अजमेर , उदयपुर , राजसमन्द व चितौड़गढ़ जिलों में इनकी अधिकता है।
  • धोक / धोकड़ा के अलावा इन वनों में अरुंज , खैर , खिरनी , सालर , गोंदल के वृक्ष भी पाए जाते है ।
  • धोक की लकड़ी मजबूत होती है । इसे जलाकर इसका कोयला बनाया जाता है ।

पलास के वन

  • वानस्पतिक नाम – ब्यूटिया मोनोस्पर्मा
  • सुर्ख लाल एवं पीले रंग के फूलों के कारण इसे जंगल की ज्वाला भी कहा जाता है।
  • ये वन राज्य के कठोर व पथरीले क्षेत्र में फैले है। जहाँ पहाड़ियों के मध्य जल पठारी धरातल है। ऐसे मैदानी क्षेत्र जहाँ मिट्टी अपेक्षाकृत कम है वहाँ भी ये वन मिलते है ।
  • इनका विस्तार मुख्यत अलवर , अजमेर , सिरोही , उदयपुर , पाली , राजसमन्द व चितौड़गढ़ जिलों में है।

उष्ण कटिबंधीय कँटीले वन

  • इस प्रकार के वन पश्चिमी राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध-शष्क प्रदेशों में पाए जाते है।
  • मुख्यतः जैसलमेर , बाड़मेर , पाली , बीकानेर , चुरू , नागौर , सीकर , झुंझुनू आदि जिलों में ये वन पाए जाते है ।
  • इन वनों में काँटेदार वृक्ष एवं झाड़ियाँ प्रमुख होती है। इन पेड़ों व झाड़ीयों की जड़े लंबी होती है तथा पत्तियां कंटीली होती है ।
  • इनमे खेजड़ा, रोहिड़ा, बेर, बबूल, कैर आदि के वृक्ष मिलते है। इनमें खेजड़ा एक बहु-उपयोगी वृक्ष है, जिसे राज्य वृक्ष का दर्जा दिया गया है।
  • फोग , आकड़ा , कैर , लाना , अरणा व झड़बेर इस क्षेत्र की प्रमुख झड़ियाँ है ।
  • यहाँ कई प्रकार की घास भी पाई जाती है जिनमे सेवण व धामण मुख्य है धामण घास दुधारू पशुओं के लिए बहुत ही उपयोगी होती है । जबकि सेवण घास सभी पशुओं के लिए पौष्टिक होती है ।

उप-उष्ण पर्वतीय वन

  • इस प्रकार के वन राजस्थान में केवल सिरोही जिले के आबू पर्वतीय क्षेत्र में है। इन वनों में सदाबहार एवं अर्द्ध-सदाबहार वनस्पति होती है।यहां वनों की सघनता अधिक है अतः सालभर हरियाली बनी रहती है ।
  • इन वनों में आम ,बांस ,नीम ,सागवान, सिरिस, अम्बरतरी, बेल आदि के वृक्ष पाए जाते है ।
  • इन वनो का क्षेत्रफल राज्य के कुल वन क्षेत्र का मात्र 0.4 प्रतिशत है।

वन सम्पदा

  • मोम – अलवर, भरतपुर, सिरोही, जोधपुर।
  • गोंद – चौहटन (बाड़मेर) में सर्वाधिक। कदम्ब वृक्ष से गोंद उतारा जाता है।
  • शीशम – गंगानगर हनुमानगढ़।
  • अर्जुन वृक्ष – उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा में पाये जाते हैं। इस वृक्ष पर रेशम कीट पालन किया जाता हैं।
  • अरडु – सवांई माधोपुर, बांरा, करौली, कोटा में पाया जाता हैं। माचिस, कठपुतलियाँ, गणगौर बनाने में प्रयोग किया जाता हैं।
  • ढ़ाक – टोंक, सवांईमाधोपुर, अलवर, जयपुर, बांरा, झालावाड़ में सर्वांधिक पाए जाते है। इसके पतल बनाए जाते हैं।
  • बांस – बांसवाड़ा, चितौड़गढ़, उदयपुर, सिरोही।
  • कत्था – उदयपुर, चितौडगढ़, झालावाड़, बूंदी, भरतपूर।
  • तेन्दुपत्ता – उदयपुर, चितौड़गढ़, बारां, कोटा, बूंदी, बांसवाड़ा।
  • महुआ – डुंगरपुर, उदयपुर, चितौड़गढ़,झालावाड़।
  • आंवल या झाबुई – जोधपुर, पाली, सिरोही, उदयपुर।

राजस्थान में घास के प्रमुख प्रकार

गंठिल घास

  • वानस्पतिक नाम – इल्यूसिन फ्लेजिलिफेरा
  • अन्य नाम – गंथिल घास
  • यह छोटी और रेंगकर बढ़ने वाली बहुवर्षीय घास है।
  • यह घास मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, सीकर, चुरू, झुन्झुनु व जोधपुर में पाई जाती है।
  • रेगिस्तानी क्षेत्रों में जहां दूसरी घासे नहीं उगती है वहां यह आसानी से उगती है। यह घास ऊंटों व भेड़ों का मुख्य चारा है।

धामन घास

  • राजस्थान में मुख्यत पश्चिमी राजस्थान में पाई जाती है।
  • इस घास से उत्तम गुणों वाला व पौष्टिक सूखा चारा प्राप्त होता है।

अंजन घास

  • वानस्पतिक नाम – सेन्क्रस सिलिएरिस
  • यह शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाई जाने वाली रेगिस्तान की एक प्रमुख घास हैं जो बहुत अधिक सूखा सहन कर सकती है।
  • अंजन एक बहुवर्षीय घास है जो राजस्थान में बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर एवं बाड़मेर जिलों में पाई जाती है।
  • इस घास को मुख्यतः काटकर पशुओं को खिलाने के काम में लेते हैं परन्तु चराई के लिए भी यह उपयुक्त है।

सेवण घास

वानस्पतिक नाम – लेसीयरस सिंडीकस (Lasiurus Sindicus)

इसका अन्य नाम लीलोण है।

  • यह पश्चिमी राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है। इसकी मुख्य विशेषता है कि यह रेतीली मिट्टी में आसानी से पनपती है।
  • राजस्थान में जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर व चूरु जिले में पाई जाती है।
  • इसको घासों का राजा भी कहते हैं। सेवण घास के सूखे चारे को सेवण की कुत्तर भी कहते हैं।
  • सेवण घास गायों के लिए सबसे उपयुक्त व पौष्टिक घास है गायों के अलावा भैंस व ऊंट भी इस घास को बहुत पसंद करते हैं।
  • जैसलमेर से पोकरण व मोहनगढ़ तक पाकिस्तानी सीमा के सहारे-सहारे एक चौड़ी भूगर्भीय जल पट्टी (60 किमी.) है, जिसे ‘लाठी सीरीज क्षेत्र’ कहा जाता है। वहां यह घास सर्वाधिक पायी जाती है।

खस घास

  • यह एक विशेष प्रकार की सुगन्धित घास होती हैं जिसके बीज का प्रयोग शरबत/ठंडाई व इत्र बनाने में किया जाता है।
  • इसकी जड़ों से तेल प्राप्त होता हैं।
  • यह मुख्य रूप से टोंक, सवाईमाधोपुर व भरतपुर जिलों में पाई जाती है।
अन्य तथ्य
तेन्दुपत्ता से बीड़ी बनती है। इसे टिमरू भी कहते है। खस एक प्रकार की घास है। इससे शरबत, इत्र बनते है।
महुआ से आदिवासी शराब बनाते है। आंवल चमड़ा साफ करने में काम आती है।
कत्था बनाने के लिए खैर के पेड़ का तना का  प्रयोग किया जाता हैकत्था हांडी प्रणाली से कथौड़ी जाति द्वारा बनाया जाता है। कत्थे के साथ केटेचिन निकलती है जो चमड़े को रंगने में काम आति है।  

राजस्थान में वानिकी कार्यक्रम

वानिकी विकास कार्यक्रम

  • 1995-96 से लेकर 2002 तक जापान सरकार के सहयोग से यह कार्यक्रम 15 गैर मरूस्थलीय जिलों में चलाया गया।

इंदिरा गांधी क्षेत्र वृक्षारोपण परियोजना

  • सन् 1991 में IGNP किनारे किनारे वृक्षारोपण एवं चारागाह हेतु यह कार्यक्रम जी जापान सरकार के सहयोग से चालाया गया। 2002 में यह पुरा हो गया।

अरावली वृक्षारोपण योजना

  • अरावली क्षेत्र को हरा भरा करने के लिए जापान सरकार(OECF – overseas economic co. fund) के सहयोग से 01.04.1992 को यह परियोजना 10 जिलों (अलवर,जयपुर,नागौर, झुंझनूं, पाली, सिरोही, उदयपुर, बांसवाड़ा, दौसा, चितौड़गढ़) में 31 मार्च 2000 तक चलाई गई।

मरूस्थल वृक्षारोपण परियोजना

  • मरूस्थल क्षेत्र में मरूस्थल के विस्तार को रोकने के लिए 1978 में 10 जिलों में चलाई गई। इस परियोजना में केन्द्र व राज्य सरकार की भागीदारी 75:25 की थी।

राजस्थान वन एवं जैविक विविधता परियोजना

  • वनों की बढोतरी के अलावा वन्य जीवों के संरक्षण हेतु यह कार्यक्रम भी जापान सरकार के सहयोग से 2003 में प्रारम्भ किया गया। इन कार्यक्रमों के अलावा सामाजिक वानिकी योजना 85-86, जनता वन योजन 1996, ग्रामीण वनीकरण समृद्धि योजना 2001-02 एवं नई परियोजना (आदिवासी क्षेत्र में वनों को बढ़ाने हेतु) हरित राजस्थान 2009 अन्य वनीकरण के कार्यक्रम है।
राजस्थान की प्रमुख वन सम्पदा

कत्था

  • वानस्पतिक नाम– एकेसिया कैटेचू
  • कत्था खैर/खदिर से प्राप्त होता है। खैर वृक्ष के तने की छाल व टुकड़ों को उबाल कर कत्था प्राप्त किया जाता है।
  • यह वृक्ष मुख्यत उदयपुर, चित्तौड़गढ़, बूंदी, झालावाड़ व जयपुर जिले में मिलता है।
  • खैर के पेड़ से कत्था बनाने में दक्ष कथौड़ी जनजाति उदयपुर व झालावाड़ क्षेत्र मे बसी हुई है।

महुआ

  • वानस्पतिक नाम – मधुका लोंगोफोलिया
  • इसे आदिवासियों का कल्पवृक्ष भी कहा जाता हैं।
  • यह राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी जिलों के सीमावर्ती क्षेत्रों में सर्वांधिक पाया जाता हैं। मुख्यत उदयपुर, डूंगरपुर, चितौड़गढ़, झालावाड़ व सिरोही जिलों में पाया जाता है।
  • यह आदिवासीयों का सबसे प्रिय वृक्ष हैं।इसकी पत्तियों, फूल, फल व छाल से देशी शराब बनाई जाती हैं।
  • इसके फल-फूल खाए जाते हैं। तथा फलों का प्रयोग तेल निकालने में होता है।

खेजड़ी (शमी वृक्ष)

  • वानस्पतिक नाम – प्रोसोपिस सिनेरेरिया
  • इसे ‘रेगिस्तान का कल्पवृक्ष’ कहते है। खेजड़ी को 31 अक्टूबर, 1983 को राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया गया था।
  • इसकी फली को सांगरी कहते है जिसे सुखाकर सब्जी के रूप में काम में लेते है तथा इसकी पत्तियों को ‘लूम’ कहते है जिसे चारे के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
  • विजयदशमी (दशहरा) के दिन शमी का पूजन किया जाता है।
  • राजस्थान में खेजड़ी वृक्ष का धार्मिक महत्व भी है लोकदेवता गोगाजी व झुंझार बाबा के मन्दिर/थान खेजड़ी वृक्ष के नीचे बने होते हैं।
  • खेजड़ी वृक्ष को पंजाबी व हरियाणवी भाषा में – जांटी, तामिल भाषा में – पेयमेय, कन्नड भाषा में-बन्ना-बन्नी, सिन्धी भाषा में-छोकड़ा, बिश्नोई सम्प्रदाय के द्वारा-शमी, स्थानीय भाषा में-सीमलों कहा जाता है।
  • 12 सितम्बर, 1978 से प्रतिवर्ष 12 सितम्बर को “खेजड़ली दिवस”मनाया जाता है।
  • सन् 1730 ई. में जोधपुर के खेजड़ली गाँव में खेजड़ी वृक्षों को बचाने हेतु अमृता देवी विश्नोई के नेतृत्व में 363 नर-नारियों ने अपने प्राणो की आहुति दे दी थी। इस उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला दशमी को खेजड़ली गाँव में विश्व का एकमात्रा वृक्ष मेला भरता है।
  • 1994 ई. में पर्यावरण संरक्षण हेतु “अमृता देवी वन्य जीव” पुरस्कार प्रारम्भ किया गया है। वन्य जीव संरक्षण के लिए दिया जाने वाला यह सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है।

धोकड़ा

  • वानस्पतिक नाम – एनोजिस पंडूला
  • यह उत्तरी-पूर्वी राजस्थान में सर्वांधिक पाया जाता हैं।
  • अलवर, भरतपुर, करौली, सवांईमाधोपुर, चित्तौड़गढ़, जयपुर आदि जिलों में इनकी अधिकता है।
  • इस वृक्ष से की लकड़ी से कृषि के औजार बनाए जाते हैं तथा इससे लकड़ी का कोयला/काष्ठ कोयला बनाया जाता हैं।

बांस

बांस एक प्रकार की घास हैं

यह राजस्थान के दक्षिण में सर्वांधिक पाए जाते हैं। मुख्यत आबूपर्वत, बाँसवाड़ा, उदयपुर व चितौड़गढ़ में पाया जाता है।

इसे आदिवासियों का हरा सोना भी कहा जाता है।

रोहिड़ा

  • वानस्पतिक नाम – टिकोमेला अन्डुलेटा
  • अन्य नाम – मरुस्थल का सागवान, मारवाड़ टीक
  • रोहिड़ा को राजस्थान की ‘मरुशोभा’ कहा जाता है।
  • रोहिड़ा को 1983 में राजस्थान का राज्य पुष्प घोषित किया गया था।
  • रोहिड़ा के पेड़ सर्वांधिक जोधपुर में हैं।
  • आँवल या झाबुई(द्रोण पुष्पी)
  • आँवल झाड़ी की छाल चमड़ा साफ करने (टैनिंग) में प्रयुक्त होती है। इसका निर्यात् किया जाता है।
  • यह झाड़ी मुख्यतः पाली, सिरोही, उदयपुर,राजसमंद, बाँसवाड़ा व जोधपुर जिलों में पाई जाती है।

तेदुं

  • इसे राजस्थानी भाषा में टिमरू कहते हैं।इसे वागड़ का चीकू भी कहा जाता है।
  • तेंदू वृक्ष का 1974 से राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था।
  • तेन्दुपत्ता का प्रयोग बीड़ी बनाने में किया जाता है।
  • इसके पेड़ सर्वांधिक बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, उदयपुर, चितौड़गढ़, बारां, कोटा, बूंदी में पाए जाते हैं।

चंदन वन

राजस्थान में राजसमंद जिले के हल्दीघाटी (खमनौर) व देलवाड़ा क्षेत्र के वनों में चंदन के पेड़ों की अधिकता होने से चंदन वन के नाम से जाने जाते हैं।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • शेखावटी क्षेत्र में घास के मैदान बीड़ कहलाते है। कुमट,कैर, सांगरी, काचरी व गूंदा के फुल पचकूटा कहलाते हैं।
  • पूर्व मुख्य सचिव मीणा लाल मेहता क प्रयासों से झालाना वन खण्ड, जयपुर में स्मृति वन विकसित किया गया है। 20.03.2006 में इसका नाम बदलकर कर्पूर चन्द कुलिस स्मृति वन कर दिया गया है।
  • जोधपुर में देश का पहला मरू वानस्पतिक उद्यान माचिया सफारी पार्क में स्थापित किया जा रहा है। जिसमे मरू प्रदेश की प्राकृति वनस्पति संरक्षित की जायेगी।
  • पं. राज. के लाठी सिरिज क्षेत्र(भूगर्भीय जल पट्टी) में सेवण प्लसियुरस सिडीकुस, धामन एवं मुरात घासें मिलती है।
  • राजस्थान में सर्वाधिक धोकड़ा के वन है।
  • जैसलमेर के कुलधरा में कैक्टस गार्डन विकसित किया जा रहा है।
  • केन्द्र सरकार ने मरूस्थलीकरण को रोकन के लिए अक्टूबर 1952 में मरू. वृक्षारोपण शोध केन्द्र की स्थापना जोधपुर में की थी।
  • Arid Forest Research Institute आफरी भी जोधुपर में है।
  • भारतीय वन सर्वेक्षण की स्थापना 1981 में देहरादून में कि गई।
  • जीवों की रक्षार्थ के लिए 1604 में जोधुपर रियासत के रामासड़ी गांव में पहला बलिदान करमा व गौरा दिया गया।
  • पाली जिले के सोजत सिटी में पर्यावरण पार्क विकसित किया जा रहा है।

वनों से संबंधित प्रमुख दिवस

  • विश्व पर्यावरण दिवस :- 5 जून
  • विश्व वानिकी दिवस :- 21 मार्च
  • अन्तर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस :- 22 मई
  • विश्व ओजोन दिवस :- 16 सितम्बर
  • विश्व पृथ्वी दिवस :- 22 अप्रैल
  • वन महोत्सव :- 1 से 7 जुलाई
  • खेजड़ली दिवस :- 12 सितम्बर

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